राधा अष्टमी व्रत कथा

राधा अष्टमी व्रत देवी राधा का जन्मोत्सव है, जो भाद्रपद शुक्ल अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह त्योहार भगवान श्री कृष्ण की जन्माष्टमी के 15 दिन बाद पड़ता है। देवी राधा को महालक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है।

जन्म की पौराणिक कथा

पद्म पुराण एवं अन्य परंपराओं के अनुसार, राजा वृषभानु एवं रानी कीर्तिदा के गर्भ से भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को राधा जी का जन्म हुआ। वे एक कमल पंखुड़ी पर स्वर्गलोक से हस्तांतरित हुई थीं।

कथा और श्राप की दास्तां

एक कथा के अनुसार, देवी राधा के स्वर्ग से वापसी के दौरान एक घटना से सुदामा पर क्रोध जटा और उन्होंने उन्हें श्राप दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप राधा को पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा—कृष्ण से वियोग का कारण। कई पुराणों में इसे लक्ष्मी और कृष्ण की भक्ति से जोड़कर समझाया गया है।

व्रत का महत्व

– ब्रह्म मुहुर्त में स्नान के बाद गंगाजल से निवारण। – राधा–कृष्ण की मूर्ति को पंचामृत से स्नान (अभिषेक)। – फूल, धूप, दीप, फल, प्रसाद, शृंगार से पूजा। – मंदिर की सजावट—फूल, ध्वजा, तोरण, कमल यंत्र से मंडप। – मन्त्रों का पाठ: जैसे: “ॐ वृशभानुज्यै विद्महे...” – व्रत का पारण अगले दिन प्रात: होता है। – भजन-कीर्तन, कथा-पाठ और दान पुण्य करना शुभ फलदायी है।

आध्यात्मिक लाभ

टीकाकारों और पुराणों के अनुसार, इस व्रत से ब्रह्म-भक्ति की प्राप्ति होती है, भवबंध से मुक्ति मिलती है, और भक्त को श्री राधा-कृष्ण के श्रीवृन्दावन-समीप स्थान की प्राप्ति होती है।

राधा अष्टमी व्रत कथा में समाने वाले प्रेम, भक्ति और आध्यात्मिक सौंदर्य को प्रकाशित करती है। इस व्रत को श्रद्धा और श्रद्धांजलि के साथ मनाने से जीवन में सकारात्मकता, खुशहाली और आध्यात्मिक शांति आती है।