क्या मोक्ष प्राप्त होने पर भी कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है?

क्या मोक्ष प्राप्त होने पर भी कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । 
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।।१५।।

अर्थात भगवान कहते हैं, पूर्वकाल में ज्ञानी पुरुषों ने भी ऐसा जानकर कर्म किए थे, इसलिए तुम भी उन्हीं के समान अपने पूर्वजों द्वारा अनादि काल से किए गए कर्मों को करो।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 15 Meaning in Hindi

क्या मोक्ष प्राप्त होने पर भी कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है?

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः

अर्जुन मुमुक्षु था, अर्थात् वह अपना कल्याण चाहता था। किन्तु युद्धरूपी कर्तव्य पालन में उसे अपना कल्याण नहीं दिखाई देता था, बल्कि वह उसे घोर अपराध मानता था और उसका त्याग करना चाहता था। इसीलिए भगवान अर्जुन को पूर्वकाल के मुमुक्षु पुरुषों का उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य पालन करके कल्याण प्राप्त किया है, इसलिए तुम भी उन्हीं के समान अपने कर्तव्य का पालन करो।

शास्त्रों में प्रसिद्ध है कि मोक्ष प्राप्त होने पर मनुष्य को कर्मों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि मोक्ष प्राप्त होने पर मनुष्य कर्म का स्वामी नहीं रहता, अपितु ज्ञान का स्वामी हो जाता है। किन्तु यहाँ भगवान कहते हैं कि मुक्त पुरुषों ने भी कर्मयोग के तत्त्व को जानकर कर्म किया है। अतः मोक्ष प्राप्त होने पर भी मनुष्य को अपने कर्तव्य-कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, अपितु निष्काम भाव से उन्हें करते रहना चाहिए।

कर्मयोग का सार है—कर्म करते हुए योग में दृढ़ रहना। कर्म संसार के लिए हैं और योग स्वयं के लिए। कर्म करना और कर्म न करना—दोनों ही अवस्थाएँ हैं। अतः, क्रिया (कर्म करना) और निर्वती (कर्म न करना)—दोनों ही क्रिया (कर्म करना) हैं। क्रिया और निर्वती—दोनों का अतिक्रमण ही योग है, जो पूर्ण निर्वती है। पूर्ण निर्वती कोई अवस्था नहीं है।

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जगत के हित के लिए क्यों करना चाहिए कर्म?

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्

इन श्लोकों के माध्यम से भगवान अर्जुन को आज्ञा दे रहे हैं कि तुम भक्त हो, अतः जैसे अन्य भक्तों ने जगत के हित के लिए कर्म किए हैं, वैसे ही तुम भी जगत के हित के लिए कर्म करो।

शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि सभी कर्मों के उपादान हमसे भिन्न और जगत से अभिन्न हैं। ये जगत के हैं और जगत की सेवा के लिए ही दिए गए हैं। इन्हें अपना मानकर अपने लिए कर्म करने से कर्मों का संबंध स्वयं से हो जाता है। जब सभी कर्म केवल दूसरों के हित के लिए किए जाते हैं, तब कर्मों का संबंध हमसे नहीं रहता। कर्मों से पूर्णतः संबंध विच्छेद हो जाने पर ‘योग’ अर्थात् परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध अनुभव होता है, जो पहले से ही विद्यमान है।

इस श्लोक में ज्ञान के द्वारा कर्मों को जानने की बात कही गई है। अब अगले श्लोक में भगवान् तत्त्व के द्वारा कर्मों को जानने का अध्याय प्रारम्भ करते हैं।

FAQs

क्या मोक्ष प्राप्त होने पर भी कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है?

हाँ, भगवद्गीता के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद भी निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए। मुक्त पुरुष भी जगत के हित के लिए कर्म करते हैं।

मोक्ष के बाद भी कर्म करने का उद्देश्य क्या है?

मोक्ष के बाद कर्म करने का उद्देश्य केवल दूसरों के हित के लिए होता है, न कि व्यक्तिगत लाभ के लिए। इससे कर्म का संबंध स्वयं से नहीं रहता।

भगवद्गीता में कर्मयोग का सार क्या है?

कर्मयोग का सार है—कर्म करते हुए योग में दृढ़ रहना। कर्म संसार के लिए हैं और योग स्वयं के लिए।

केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करने का क्या लाभ है?

इससे हम कर्म से पूर्णतः अलग हो जाते हैं और परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध अनुभव होता है।

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