
सञ्जय उवाच ।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। 2।।
अर्थात संजय ने कहा उस समय वज्र व्यूह से खड़ी हुई पांडवसेना को देखकर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन बोलते हैं।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढम : पांडवों की वज्र व्यूह से खड़ी सेना को देखने का तात्पर्य है कि पांडवों की सेना बहुत ही सुंदर रीत से और एक ही भाव से खड़ी थी। अर्थात उनके सैनिकों में दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था। उनके पक्ष में धर्म और भगवान थे। इस चीज की दूसरों पर ज्यादा असर पड़ रही थी। इसलिए संख्या में कम होने के बाद भी पांडवों की सेना का तेज यानी प्रभाव था। इसीलिए दूसरों पर इसकी कुछ ज्यादा ही असर दिख रही थी। दुर्योधन पर भी पांडव सेना की कुछ ज्यादा ही असर दिखी, जिस कारण वह द्रोणाचार्य के पास जाकर नीति वाले गंभीर वचन बोलते हैं।
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राजा दुर्योधनस्तदा : दुर्योधन को राजा कहने का तात्पर्य है, कि धृतराष्ट्र का ज्यादा स्नेह (मोह) दुर्योधन पर ही था। परंपरा की दृष्टि से भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्य के सब कार्यों की देखभाल दुर्योधन ही करता था। घृतराष्ट्र तो नाम मात्र के राजा थे। युद्ध होने में भी मुख्य कारण दुर्योधन ही था। इन सब कारणों से संजय ने दुर्योधन के लिए राजा शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्यमुपसङ्गम्य : दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास जानेमें मुख्य तीन कारण दिखते हैं
1) खुदका स्वार्थ साधने के लिए अर्थात द्रोणाचार्य के मन में पांडवों प्रति द्वेष उत्पन्न करके उनको अपने पक्ष में विशेष रूप से लाने के लिए दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास गए।
2) रिश्ते में गुरु होने के संबंध से मान देने के लिए भी द्रोणाचार्य के पास जाना योग्य था।
3) मुख्य व्यक्ति का सेना में यथा स्थान पर खड़ा रहना बहुत ही जरूरी होता है, नहीं तो व्यवस्था बिगड़ जाती हैं। इसलिए दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास खुद जाना योग्य ही था।

यहां पर शंका हो सकती है कि, दुर्योधन को तो पितामह भीष्म के पास जाना चाहिए था, क्योंकि वे सेनापति थे फिर भी दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य के पास ही क्यों गया ? इसका समाधान यह है कि, द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म दोनों उभय पक्षपाती थे। अर्थात वे कौरव और पांडव दोनों पक्षों को खींचते थे, इन दोनों में भी द्रोणाचार्य को ज्यादा समझना था। क्योंकि द्रोणाचार्य के साथ दुर्योधन का गुरु होने के रिश्ते से तो स्नेह था, परंतु कौटुंबिक संबंध से स्नेह नहीं था। और अर्जुन पर द्रोणाचार्य की विशेष कृपा थी। इसीलिए उनको राजी करने के लिए दुर्योधन का उनके पास जाना ही योग्य था। रिश्तो में भी यह देखने को मिलता है कि जिनके साथ स्नेह नहीं होता उनके पास से खुद का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मनुष्य उनको ज्यादा मान दे कर राजी करता है।

दुर्योधन के मन में यह विश्वास था कि पितामह भीष्म तो हमारे दादा हैं ही, इसीलिए उनके पास न भी जाउ तो भी कोई आपत्ति नहीं है। न जाने से शायद वे नाराज भी हो सकते हैं, तो भी मैं कुछ करके उनको मना लूंगा। क्योंकि पिता महा भीष्म के साथ दुर्योधन का कौटुंबिक संबंध और स्नेह था। इसलिए पितामह भीष्म का भी उनके साथ कॊटुंबिक संबंध और स्नेह था। इस कारण भीष्म जी ने दुर्योधन को खुश करने के लिए जोर से शंख बजाया।
वचनमब्रवीत् – वचनम शब्द का प्रयोग करने का तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गंभीर वचनों बोलते हैं। जिसेकि द्रोणाचार्य के मन में पांडवों के प्रति द्वेष उत्पन्न हो जाए, और वे संपूर्ण रूप से हमारे पक्ष में रहकर अच्छे से युद्ध करें जिसेकि हमारी विजय हो जाए, और हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाए।
द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन क्या वचन बोलता है? यह बात अगले श्लोक में हम देखेंगे।
Bhagavad Geeta Chapter 1 Shloka 2 Meaning ( Video )
दुर्योधन सबसे पहले द्रोणाचार्य के पास क्यों गया?
वह द्रोणाचार्य को पांडवों के खिलाफ पूरी तरह से अपने पक्ष में करना चाहता था।
दुर्योधन भीष्म के पास पहले क्यों नहीं गया?
क्योंकि भीष्म पहले से ही कौरवों का समर्थन कर रहे थे और उनका पारिवारिक स्नेह दुर्योधन के साथ था।
पांडवों की सेना को देखकर दुर्योधन घबराया क्यों?
क्योंकि उनकी सेना संगठित और धर्म के पक्ष में थी, जिससे उसका आत्मविश्वास डगमगा गया।
भगवद गीता के 2 श्लोक में ‘दुर्योधन’ को राजा क्यों कहा गया है?
क्योंकि धृतराष्ट्र नाममात्र के राजा थे और असली सत्ता दुर्योधन के हाथों में थी।
दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से क्या बातचीत की?
उसने चतुराई से नीति युक्त वचन कहे ताकि द्रोणाचार्य पूरी निष्ठा से कौरवों के लिए लड़ें।