
Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 27
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥२७॥
अर्थात भगवान कहते हैं, अन्य योगीजन समस्त इन्द्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयमरूपी अग्नि में हवन करके सम्पन्न करते हैं।
shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 27 Meaning in Hindi
गीता के अनुसार समाधि को यज्ञ क्यों कहा गया है?
–सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे
इस श्लोक में समाधि को यज्ञ का रूप दिया गया है। कुछ योगी समाधि में दसों इंद्रियों की क्रियाओं का हवन करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि की अवस्था में मन और बुद्धि सहित सभी इंद्रियों (ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इंद्रियाँ पूर्णतः स्थिर और शांत हो जाती हैं।
समाधि के यज्ञ में प्राणों की क्रियाओं का भी त्याग हो जाता है, अर्थात् समाधि काल में प्राणों की क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधि में प्राणों की गति को रोकने के दो प्रकार हैं।
एक है हठयोग की समाधि, जिसमें प्राणों को रोकने के लिए कुम्भक किया जाता है। जैसे-जैसे कुम्भक का अभ्यास बढ़ता है, प्राण रुकते हैं, जो घंटों या दिनों तक रुके रह सकते हैं। यह प्राणायाम आयु बढ़ाता है,जैसे बारिश होने पर पानी बहने लगता है, वैसे ही पानी के साथ रेत भी बहकर आती है और मेंढक उस रेत में फँस जाता है। जब बारिश बीत जाती है और रेत सूख जाती है, तो मेंढक चुपचाप उस रेत में पड़ा रहता है, उसके प्राण थम जाते हैं। जब फिर से बारिश होती है, जब बारिश का पानी मेंढक पर पड़ता है, तो उसके प्राण फिर से बहने लगते है।
दूसरे प्रकार में, मन एकाग्र होता है। जब मन पूरी तरह से एकाग्र हो जाता है, तो प्राणों की गति स्वतः ही रुक जाती है।
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क्या समाधि में इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाएँ पूरी तरह रुक जाती हैं
–ज्ञानदीपिते
समाधि और निद्रा – दोनों का कारण शरीर से संबंध है, इसीलिए बाहर से दोनों एक ही अवस्था में प्रतीत होते हैं। यहाँ ‘ज्ञानोपते’ शब्द को समाधि और निद्रा में भेद स्थापित किया है। तात्पर्य यह है कि बाहर से एक जैसा प्रतीत होने पर भी समाधि काल में ‘एक सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है’ यह ज्ञान प्रकाशित (जागृत) रहता है और निद्रा काल में वृत्तियाँ अज्ञान में लीन रहती हैं। समाधि काल में प्राणों की गति रुक जाती है और निद्रा काल में प्राणों की गति जारी रहती है। इसीलिए निद्रा के प्रारंभ होने से समाधि नहीं लगती।
गीता के अनुसार आत्मसंयम योग अग्नि में आहुति का क्या अर्थ है?
–आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति
चित्तवृत्ति निरोधरूपी यज्ञ अर्थात् समाधिरूपी यज्ञ करने वाले योगीजन समाधियोग की अग्नि में इन्द्रियों और प्राणों के कर्मों की आहुति देते हैं, अर्थात् मन-बुद्धि सहित समस्त इन्द्रियों और प्राणों के कर्मों को रोककर समाधि में स्थित हो जाते हैं। समाधि काल में समस्त इन्द्रियाँ और प्राण अपनी चंचलता खो देते हैं। केवल एक सत्य और आनन्दमय परमात्मा का ज्ञान ही जागृत रहता है।
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