
Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ४० ॥
अर्थात भगवान कहते हैं, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ये इस काम के निवासस्थान कहे गए हैं। यह काम इनके द्वारा ज्ञान को ढंक के देहाभिमानी मनुष्य को मोहित कर लेता है।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 40 Meaning in hindi
क्या इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ही काम का असली निवासस्थान हैं?
–इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते
काम पाँच स्थानों में होता है – (1) विषयों में, (2) इन्द्रियों में, (3) मन में, (4) बुद्धि में और (5) आत्म-कल्पित अहंकार (‘मैं’) अर्थात् कर्ता में। इन पाँच स्थानों में प्रकट होने पर भी काम वास्तव में आत्म-कल्पित अहंकार (चिज्जदग्रन्थि) में ही रहता है। किन्तु उपरोक्त पाँच स्थानों में प्रकट होने के कारण ही इसे इस काम का निवास स्थान कहा गया है।
सभी क्रिया शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के द्वारा कि जाती हैं। ये चारों कर्म करने के साधन हैं। यदि इसमें काम है, तो यह दिव्य कर्मों को होने नहीं देगा। अतः कर्मयोगी, कर्म से रहित, निष्काम और अनासक्त होकर, शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के द्वारा हृदय की शुद्धि के लिए कर्म करता है।
वास्तव में, काम अहंकार (अंतर्निहित चेतना की पहचान) में निवास करता है। अहंकार अर्थात ‘मैं’, एक मान्यता मात्र है। मैं कुछ जाति, आश्रम और संप्रदाय का हूँ – यह केवल एक मान्यता है। विश्वास के अतिरिक्त इसका कोई अन्य प्रमाण नहीं है। काम इसी विश्वास में निवास करता है। सभी पाप काम के कारण ही होते हैं। पाप फल भोगने के बाद नष्ट हो जाते हैं, लेकिन ‘अहंकार’ से काम को हटाए बिना, नए पाप होते रहते हैं। इसीलिए काम ही जीवन को बाँधने वाला है।
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काम-वासना जब उत्पन्न होती है, तो व्यक्ति सर्वप्रथम इन्द्रियों के माध्यम से सुख भोगने की इच्छा करता है। पहले तो सुख के विषय उपलब्ध नहीं होते, और यदि मिल भी जाएँ, तो टिकते नहीं। अतः उन्हें किसी भी प्रकार प्राप्त करने के लिए वह मन में नाना प्रकार की कामनाएँ करता है। बुद्धि में वह उन्हें प्राप्त करने के विभिन्न उपायों के बारे में सोचता है। इस प्रकार काम-वासना सर्वप्रथम इन्द्रियों को संयोगवश सुख के प्रलोभन में फँसाती है। फिर इन्द्रियाँ मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, और फिर इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धि को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस प्रकार काम-वासना देहाभिमानी व्यक्ति के ज्ञान को ढंक करके, इन्द्रियों, मन और बुद्धि के माध्यम से उसे मोहित कर लेती है, और उसे पतन के खड्डे में गिरा देती है।
क्या ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना ही तृष्णा का कारण है?
–देहिनम् विमोहयती
इस पद का भावार्थ इस प्रकार है: जो व्यक्ति देहाभिमानी है, वही देहाभिमानी है। भगवान ने अपने उपदेश के आरंभ में ही (गीता Ch 2/11-30) देह (शरीर) और आत्मा (शरीर-आत्मा) की चर्चा की है। शरीर और आत्मा भिन्न हैं – यह सभी का अनुभव है। यह काम ज्ञान को ढककर देहाभिमानी (शरीर के साथ अपना संबंध मानने वाले) को बांधता है, आत्मा (शुद्ध स्वरूप) को नहीं। जो शरीर के साथ अपना संबंध नहीं मानता, उसे यह नहीं बांध सकता। शरीर को ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ मानकर ही मनुष्य नाशवान जड़ पदार्थों को महत्व देता है, इस प्रकार उसमें जड़ पदार्थों के प्रति तृष्णा उत्पन्न होती है। तृष्णा उत्पन्न होने पर जड़ पदार्थों से संबंध हो जाता है। जड पदार्थों से संबंध होते ही काम उत्पन्न होता है। काम उत्पन्न होने पर आत्मा आसक्त होकर संसार के बंधनों में बंध जाता है।
अब अगले तीन श्लोक में भगवान कामना को मारने की रीत बताकर उसे मारने की आज्ञा देते हैं।
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