क्या इंद्रियों पर नियंत्रण ही कामनाओं के विनाश की पहली शर्त है?

क्या इंद्रियों पर नियंत्रण ही कामनाओं के विनाश की पहली शर्त है?

Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्यनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥

अर्थात भगवान कहते हैं, अतः हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तुम्हें पहले अपनी इन्द्रियों को वश में करके इस महापापी काम को, जो ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाला है, उसे बलपूर्वक मार डालना चाहिए।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 41 Meaning in Hindi

क्या इंद्रियों पर नियंत्रण ही कामनाओं के विनाश की पहली शर्त है?

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ

भोग बुद्धि से इन्द्रियों को विषयों में न लगाने देना, अपितु केवल जीविका बुद्धि से अथवा साधन बुद्धि से लगाने देना, इन्हें वश में करना कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों को विषयों में रजोगुण से नही लगाना चाहिए और द्वेष से भी नहीं लगाना चाहिए। रजोगुण से कर्म करने और द्वेष से निवृत्ति करने से राग और द्वेष प्रबल हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं। अतः कर्म और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्य को जानने के लिए शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण हैं। शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य पालन और अकर्तव्य का त्याग करने से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।

काम को मारने का अर्थ सर्वप्रथम इन्द्रियों को वश में करना इसलिए कहा गया है कि जब तक मनुष्य इन्द्रियों के अधीन रहता है, तब तक उसकी दृष्टि सार की ओर नहीं जाती, और सार की ओर दृष्टि जाए बिना, अर्थात् सार का अनुभव किए बिना, ‘काम’ का पूर्ण नाश नहीं होता।

मनुष्य के कर्म इंद्रियों के माध्यम से होते हैं। इसीलिए वह सबसे पहले इंद्रियों के विषयों में फँसता है, जिससे उसके अंदर उन विषयों की कामनाएँ उत्पन्न होती हैं। कामनाओं सहित कर्म करने से मनुष्य पूरी तरह से इंद्रियों के वश में हो जाता है और यही उसका पतन का कारण बनता है। लेकिन जो मनुष्य इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही सच्चा उद्धार पाता है।

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क्या इच्छाएँ हमारे विवेक और ज्ञान को ढक रही हैं?

एनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्

विवेक और दर्शन दोनों ही स्वयंसिद्ध हैं। दर्शन का अनुभव सभी को नहीं होता, परन्तु विवेक का अनुभव सभी को होता है। यह विवेक मनुष्यों में विशेष रूप से स्पष्ट होता है। अर्जुन के प्रश्न (मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है?) में ‘अनिच्छा’ शब्द भी इसी बात को सिद्ध करता है। मनुष्य में विवेक होता है और इसी विवेक के द्वारा वह पाप और पुण्य दोनों को जानता है तथा पाप नहीं करना चाहता। पाप न करने की इच्छा विवेक के बिना उत्पन्न नहीं होती। परन्तु यह ‘कामना’ उस विवेक को आच्छादित कर देती है और उसे जागृत नहीं होने देती।

विवेक जागृत होने पर व्यक्ति भविष्य अर्थात् परिणाम पर दृष्टि रखकर अपने सभी कर्म करता है। परन्तु चूँकि विवेक इच्छा से आच्छादित होता है, इसलिए वह परिणाम की ओर नहीं देखता। वह पाप केवल इसलिए करता है क्योंकि वह परिणाम की ओर नहीं देखता।

वास्तव में यह ‘काम’ ज्ञान-विज्ञान को नष्ट (घृणा) नहीं करता, अपितु उन्हें ढक लेता है, अर्थात् प्रकट नहीं होने देता। यहाँ कहा गया है कि उन्हें ढकने से वे नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि ज्ञान और विज्ञान कभी नष्ट नहीं होते। वास्तव में, केवल ‘काम’ ही नष्ट होता है। जैसे आँखों के सामने बादल आने पर कहा जाता है कि ‘बादलों ने सूर्य को ढक लिया है’, किन्तु वास्तव में सूर्य नहीं ढका है, अपितु आँखें ढकी हुई हैं, उसी प्रकार कहा जाता है कि ‘काम ने ज्ञान-विज्ञान को ढक लिया है’, किन्तु वास्तव में ज्ञान-विज्ञान नहीं ढका है, अपितु बुद्धि ढकी हुई है।

क्या कामवासना ही सभी पापों की असली जड़ है?

पाप्मानं प्रजहि

कामवासना समस्त पापों का मूल है, अतः कामवासना के उत्पन्न होने से पाप होने की संभावना बनी रहती है। आगे चलकर कामवासना व्यक्ति के विवेक को अंधा कर देती है, जिससे उसे पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं रहता और वह पापों में लिप्त हो जाता है। इससे उसका घोर पतन होता है। इसीलिए ईश्वर कामवासना को महापापी बताते हैं और उसे अविलंब वध करने का आदेश देते हैं।

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