गीता के अनुसार आत्मज्ञान से परमात्मा का अनुभव कैसे होता है?

गीता के अनुसार आत्मज्ञान से परमात्मा का अनुभव कैसे होता है?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 35

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । 
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥३५॥

अर्थात भगवान कहते हैं, जो (तत्वज्ञान) का अनुभव करके तू फिर कभी इस प्रकार मोहित नहीं होगा और हे अर्जुन! इस (ज्ञान) के द्वारा तू सर्वथा अपने में और फिर मुझ सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा में बिना किसी अपवाद के सम्पूर्ण परमात्मा को देखेगा।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 35 Meaning in Hindi

गीता में आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद मोह क्यों समाप्त हो जाता है?

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव

पिछले श्लोक में भगवान ने कहा कि वे महापुरुष तुम्हें तत्वज्ञान का उपदेश देंगे, परंतु उपदेश सुनने मात्र से तुम्हें वास्तविक आत्मज्ञान अर्थात् स्वरूप का सच्चा अनुभव नहीं होगा, और वास्तविक आत्मज्ञान का वर्णन भी कोई नहीं कर सकता। क्योंकि वास्तविक आत्मज्ञान करण से स्वतंत्र है, अर्थात् मन, वाणी आदि से परे है, वास्तविक आत्मज्ञान स्वयं ही होता है और वह तब होता है जब व्यक्ति अपनी बुद्धि (जड़-चेतन के भेद का ज्ञान) को महत्व देता है। जब बुद्धि को महत्व देकर अविवेक पूर्णतः दूर हो जाता है, तब वह बुद्धि ही वास्तविक आत्मज्ञान बन जाती है और व्यक्ति को जड़ता से पूर्णतः पृथक कर देती है। वास्तविक आत्मज्ञान होने पर फिर कभी मोह नहीं रहता।

गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन का यह भ्रम प्रकट होता है कि यदि युद्ध में उसके सभी परिवारजन और सगे-संबंधी मारे गए, तो उनको पिंड तर्पण कौन देगा? यदि उनका पिंड पानी नहीं दिया गया, तो वह नरक में जाएगे। जो स्त्री-बच्चे जीवित बचेंगे, उनका पालन-पोषण कैसे होगा? आदि। तत्वज्ञान प्राप्त करने के बाद ऐसा भ्रम नहीं रहता। जब व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और संसार तथा आत्मा के बीच कोई संबंध नहीं रह जाता, तो फिर से भ्रम में पड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता।

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गीता के अनुसार आत्मज्ञान से परमात्मा का अनुभव कैसे होता है?

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मनि 

तत्वज्ञानहोते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र पूर्ण है और उस सत्ता के भीतर अनंत ब्रह्मांड हैं। जैसे स्वप्न से जागने वाला व्यक्ति स्वप्न की सृष्टि को अपने भीतर देखता है, वैसे ही तत्व का साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति समस्त प्राणियों (जगत) को अपने भीतर देखता है।

गीता में तत्वज्ञान से सभी प्राणियों को अपने स्वरूप में देखने का क्या अर्थ है?

अथो मयि

तत्वज्ञान प्राप्ति की प्रचलित प्रक्रिया के अनुसार भगवान कह रहे हैं कि गुरु से अनुष्ठानपूर्वक (श्रवण, मनन और अवलोकन के माध्यम से) दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद साधक सर्वप्रथम सभी प्राणियों को उनके अपने स्वरूप में देखता है।

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