भगवद गीता में संन्यास और कर्मयोग में कौन है श्रेष्ठ?

भगवद गीता में संन्यास और कर्मयोग में कौन है श्रेष्ठ?

Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 1

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।१।।

अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! आप कर्म के त्याग की, फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनों में से जो निश्चित रूप से कल्याणकारी हो, उसे बताइए।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 1 Meaning in hindi

क्या पारिवारिक मोह से जन्मा संन्यास सही है?

संन्यासं कर्मणां कृष्ण

पारिवारिक स्नेह के कारण अर्जुन के मन में युद्ध न करने की भावना उत्पन्न हो गई। इसके समर्थन में अर्जुन ने प्रथम अध्याय में कुछ तर्क और युक्तियाँ भी प्रस्तुत कीं। उन्होंने दर्शाया कि युद्ध करना पाप है। उन्हें समझ आने लगा कि युद्ध करने की अपेक्षा भिक्षा-भोजन पर निर्वाह करना अधिक अच्छा है, और उन्होंने मन ही मन भगवान से स्पष्ट कह दिया कि वे किसी भी स्थिति में युद्ध नहीं करेंगे।

श्रोता प्रायः वक्ता के वचनों का अपने विचारों के अनुसार अर्थ करता है। अपने स्वजनों को देखकर अर्जुन के हृदय में जो मोह उत्पन्न हुआ, उसके अनुसार युद्धरूपी कर्म को त्यागने की बात उसे उचित प्रतीत होने लगी। अतः वह भगवान के वचनों को अपने विचारों के अनुसार समझ रहा है कि भगवान प्रचलित व्यवस्था के अनुसार कर्मरूपी कर्म को त्यागकर तत्वज्ञान की प्राप्ति का गुणगान कर रहे हैं।

अर्जुन ने क्यों पूछा: ज्ञानयोग श्रेष्ठ या कर्मयोग?

पुनर्योगं च शंससि

चौथे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में भगवान ने कर्मयोगी से कहा है कि वह अन्य किसी साधन के बिना ही तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेगा। इसी को लक्ष्य बनाकर अर्जुन भगवान से कह रहे है कि कभी आप ज्ञानयोग की प्रशंसा करते हैं, और कभी कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं।

भगवद गीता में संन्यास और कर्मयोग में कौन है श्रेष्ठ?

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्

यहाँ, उपर्युक्त पदों में अर्जुन ने जो पूछा है, उसके उत्तर में भगवान ने कहा है कि कर्मयोग ही सर्वश्रेष्ठ है, कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, कर्मयोग के बिना सांख्ययोग के साधन प्राप्त करना कठिन है, किन्तु कर्मयोगी ही ब्रह्म को प्राप्त करता है। ऐसा कहकर भगवान अर्जुन को बता रहे हैं कि कर्मयोग ही एकमात्र ऐसा है जो तुम्हें सरलतापूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति करा देगा, अतः तुम्हें कर्मयोग का ही अभ्यास करना चाहिए।

अर्जुन के मन में मुख्य इच्छा अपने कल्याण की थी। इसीलिए वह बार-बार भगवान के समक्ष पुण्य के विषय में जिज्ञासा करता रहता है। कल्याण की प्राप्ति में कामना ही सर्वोपरि है। विधि की सफलता में विलम्ब का कारण भी यही है कि कल्याण की कामना पूर्णतः जागृत नहीं हुई है। जिन साधकों में दृढ़ वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याण की कामना जागृत होने पर कर्मयोग की विधि को सरलता से कर सकते हैं। अर्जुन के हृदय में भोगों से पूर्ण वैराग्य नहीं है, अपितु उसके मन में अपने कल्याण की कामना है, इसीलिए वह कर्मयोग का अधिकारी है।

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