अज्ञान दूर करने का एकमात्र उपाय क्या है? – श्रीकृष्ण का उत्तर

अज्ञान दूर करने का एकमात्र उपाय क्या है? – श्रीकृष्ण का उत्तर

Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।१६।।

अर्थात भगवान कहते हैं, परन्तु जिन्होंने अपने ज्ञान (विवेक) के द्वारा उस अज्ञान को नष्ट कर दिया है, उनके लिए वह ज्ञान सूर्य के समान परम सत्ता परमात्मा को प्रकाशित करता है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 16 Meaning in hindi

अज्ञान दूर करने का एकमात्र उपाय क्या है? – श्रीकृष्ण का उत्तर

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः

अपनी सत्ता और शरीर को अलग-अलग मानना ‘ज्ञान’ है और एक मानना अज्ञान है।

सृष्टि और प्रलय के जगत के किसी भाग में हमने स्वयं को अर्थात् ‘मैं’ (अहंकार) बना रखा है और कुछ भाग अपने में अर्थात् मुझे (अहंता) बना रखा है। अपनी सत्ता का निरंतर अनुभव होता रहता है और अपना मैं-मेरापन निरंतर बदलता हुआ दिखाई देता है, जैसे – पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं जवान और वृद्ध हो गया हूँ और मेरे पास स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि हैं। इस प्रकार, हमको मैं, मेरे में होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान तो है, परन्तु अपनी सत्ता में होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान नहीं है। वह ज्ञान ही विवेक है।

जड़ के साथ मैं-मेरा न मिलाकर साधक को अपनी बुद्धि को महत्व देना चाहिए कि जिस किसी वस्तु के साथ मैं-मेरा मिलाता हूँ, वह बदल जाती है, परंतु जिस मैं-मेरा को मैं (मेरी सत्ता) कहते हैं, वह वही रहती है। जड़ का परिवर्तन और अभाव तो समझ में आता है, परंतु स्वयं का परिवर्तन और अभाव किसी को समझ में नहीं आता, क्योंकि स्वयं में किंचितमात्र भी परिवर्तन और अभाव कभी नहीं होता – इस बुद्धि से मैं-मेरा का त्याग कर देना चाहिए कि शरीर ‘मैं’ नहीं है और जो परिवर्तनशील है, वह ‘मेरा’ नहीं है। अज्ञान को नष्ट करने का यही एकमात्र उपाय है। परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील का संबंध अज्ञान के कारण है, अर्थात बुद्धि को महत्व देकर, और बुद्धि को जागृत करके, जिसने परिवर्तनशील मैं और मेरे संबंध का विचार कर लिया है, वह बुद्धि परमात्मानंद को प्रकाशित करती है, अर्थात उसका अनुभव कराती है।

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जब ज्ञान सूर्य की तरह प्रकाशित होता है तो क्या होता है?

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्

जब बुद्धि पूर्णतः जागृत हो जाती है, तो परिवर्तनशीलता समाप्त हो जाती है। जब परिवर्तनशीलता समाप्त हो जाती है, तो व्यक्ति को अपने स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है, और जैसे ही ऐसा होता है, पूर्ण दिव्य तत्व सर्वत्र प्रकट हो जाता है, अर्थात् व्यक्ति उसके साथ अपनी एकता का अनुभव करता है।

जब अज्ञान दूर होता है तो परमात्मा का अनुभव कैसे होता है?

प्रकाशयति

इस पद का अर्थ है कि जब सूर्योदय होता है, तो कुछ नई वस्तु का निर्माण नहीं होता, बल्कि अंधकार के कारण जो दिखाई नहीं देता था, वह दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार, परमात्मा स्वयंसिद्ध है, परन्तु अज्ञान के कारण उसका अनुभव नहीं होता। जैसे ही विवेक द्वारा अज्ञान दूर होता है, उस स्वयंसिद्ध परमात्मा का अनुभव होने लगता है।

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