
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 23
'शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥२३॥
जो मनुष्य इस मानव शरीर में काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले आवेगों को शरीर छोड़ने से पहले सहन करने में समर्थ है, वह मनुष्य योगी है और वह सुखी है।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 23 Meaning in hindi
क्या मानव जीवन का असली उद्देश्य भोग है या मोक्ष की साधना?
–‘शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् कामक्रोधोद्भवं :
विवेक शील बुद्धि पशुओं को भी प्राप्त हुई है। पशु-पक्षियों की योनियों में यह बुद्धि प्रसुप्त रहती है। उनमें अपनी-अपनी योनियों के अनुसार केवल शरीर-निर्वाह की बुद्धि ही रहती है। देवताओं आदि की योनियों में यह बुद्धि आवृत रहती है, क्योंकि वे योनियाँ भोग के लिए मिलती हैं, अतः उनमें भोगों की अनेकता और भोगों का उद्देश्य बना रहता है। मनुष्य योनि में भी भोग और संचय करने वाले की बुद्धि आवृत रहती है। आवृत रहने पर भी वह बुद्धि मनुष्य को समय-समय पर भोग और संचय में होने वाले दुःख और दोष का दर्शन कराती रहती है। किन्तु उसे महत्व न देने के कारण मनुष्य भोग और संचय में ही फंसा रहता है। अतः मनुष्य को उस बुद्धि को महत्व देना चाहिए और उसे स्थाई बनाना चाहिए। इसमें उसे पूर्ण स्वतंत्रता है। बुद्धि को स्थाई बनाकर वह राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारों का पूर्णतः अंत कर सकता है।
मानव शरीर केवल मोक्ष के लिए मिला है। अतः केवल मनुष्य ही कामवासना की तीव्रता को सहन करने के योग्य, अधिकारी और समर्थ हैं। इसमें किसी जाति, आश्रम आदि की अपेक्षा नहीं है।
मृत्यु का कोई पता नहीं कि कब आजाएगी, इसलिए सबसे पहले कामवासना का दंश झेलना चाहिए। कामवासना के आगे न झुकना चाहिए—यह सावधानी जीवन भर रखनी है। यह कार्य मनुष्य स्वयं कर सकता है, कोई और नहीं। इस कार्य को करने का अवसर केवल मानव शरीर में ही है, अन्य शरीरों में नहीं। इसलिए शरीर छूटने से पहले यह कार्य अवश्य कर लेना चाहिए।
भोगों की इच्छा उत्पन्न होने से पहले ही संकल्प कर लेना चाहिए। संकल्प बनते ही ध्यान रखना चाहिए कि मैं साधक हूँ, मुझे भोगों में नहीं फँसना है, क्योंकि यह साधक का काम नहीं है। इस प्रकार संकल्प उत्पन्न होते ही उसे त्याग देना चाहिए।
भगवद् गीता में क्यों कहा गया है कि जो काम-क्रोध को सहन करता है वही योगी है?
–स युक्तः नर:
जिनका ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है, उन्हें भगवान ने इसी अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में ‘कीट’ कहा है। यहाँ काम के वेग को सहन करने में समर्थ व्यक्ति को नर:’ कहा है। तात्पर्य यह है कि जो काम के वश में हैं, वे मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं हैं। जिसने काम पर विजय प्राप्त कर ली है, वही वास्तव में पुरुष है, वीर है।
जो व्यक्ति समता में स्थित है, उसे योगी कहते हैं। जो अपने विवेक को महत्व देकर काम के वेग को उत्पन्न नहीं होने देता, वही समता में स्थित हो सकता है।
क्या कामना से मुक्त होना ही सच्चे सुख का रहस्य है?
–स सुखी
काम के उदय होने पर मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी सुख और शांति से नहीं रह सकते। इसीलिए वही मनुष्य सच्चा सुखी है जिसने काम के संकल्प को मिटा दिया है। क्योंकि काम का संकल्प उत्पन्न होते ही मानव हृदय में अशांति, बेचैनी, द्वंद्व आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। जब ये दोष बने रहते हैं, तो मनुष्य सुखी कैसे कहला सकता है? जब मनुष्य काम के आवेग के अधीन हो जाता है, तब वह दुखी हो जाता है। क्योंकि जो मनुष्य नाशवान वस्तुओं का आश्रय लेकर और उनसे संबंध बनाकर सुख खोजता है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता—यही नियम है।
बाह्य संबंधों से होने वाले सुख के अनर्थ का वर्णन करके अब भगवान आंतरिक तत्व के संबंध से होने वाले सुख के महिमा का वर्णन करते हैं।
यह भी पढ़ें : महाभारत युद्ध में दुर्योधन की सबसे बडी ताकत कौन थे? जानिए इन महायोद्धाओं की कहानी









