
Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 12
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: |
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || 12 ||
अर्थात संजय कहते हैं दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए कुरुवृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के जैसे गर्जना करके जोर से शंख बजाया।
Shrimad Bhagawat Geeta Chapter 1 Shloka 12 Meaning in hindi
तस्य संजनयन हर्षंम : वैसे तो दुर्योधन के हृदय में हर्ष होना यह शंख ध्वनि का कार्य है, और शंख ध्वनि यह हर्ष होने का कारण है। इसलिए यहां शंख ध्वनि का वर्णन पहले होना चाहिए था, और हर्ष होने का वर्णन बाद में होना चाहिए। अर्थात यहां शंख बजते दुर्योधन को हर्षित किया। ऐसा कहना चाहिए था, परंतु यहां ऐसा ना कहके ऐसा कहा गया है कि, दुर्योधन को हर्षित करते हुए भीष्म जी ने शंख बजाया। ऐसा कह कर संजय ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि, पितामह भीष्म की शंख बजाने की क्रिया मात्र से दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न हो जाएगा। भीष्म जी की यह प्रतिभा का द्योतन करने के लिए ही संजय ने पहले से प्रतापवान विशेषण देते हैं।
कुरुवृद्ध: : वैसे गुरुवंशियों में आयु की दृष्टि से देखे तो भीष्मजी से भी अधिक वृद्ध बाहलिक थे(की जो भीष्म जी के पिता शांतनु के छोटे भाई थे), फिर भी कुरुवंशियों में जितने बड़े वृद्ध थे, उन सब में भीष्म जी धर्म और ईश्वर की विशेषता से प्रख्यात थे। इसलिए ज्ञान और वृद्ध होने का कारण संजय भीष्म जी के लिए कुरुवृद्ध: विशेषण का उपयोग करता है।
प्रतापवान् : भीष्मजी के त्याग की बड़ी असर थी। वह कंचन कामिनी के त्यागी थे, अर्थात् उन्होंने राज्य भी नहीं स्वीकारा, और विवाह भी नहीं किया। भीष्म जी अस्त्र-शस्त्र चलाने में बड़े ही निपुण थे। और शास्त्र के भी बड़े जानकार थे। उनके यह दोनों गुणों का भी लोगों के ऊपर कुछ ज्यादा ही असर था।
जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्य के लिए काशीराज की कन्या का स्वयंवर में से हरण करके ला रहे थे। तब वहां स्वयंवर में इकट्ठा हुए सब क्षत्रिय उनके ऊपर टूट पड़े, परंतु अकेले भीष्म जी ने सबको हरा दिया। जिनके पास से भीष्म जी ने अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी थी, वे गुरु परशुराम जी समक्ष भी उन्होंने हार नहीं स्वीकारी। इस तरह शस्त्र की बात में उनका क्षत्रियों पर बड़ा ही प्रभाव था।
जब भीष्म जी तीर सैया पर सोए थे, तब भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि, आपको धर्म के विषय में कुछ शंका हो तो भीष्म जी को पूछ लो। क्योंकि शास्त्र ज्ञान के सूर्य अस्त हो रहे हैं, अर्थात भीष्म जी इस लोक से विदाई ले रहे हैं। इस तरह शास्त्र के विषय में उनका दूसरों पर भारी प्रभाव था।
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पितामह: : इस पद का ऐसा आशय दिख रहा है कि, दुर्योधन की चालाकी से कही हुई बातों का द्रोणाचार्य ने उतर नहीं दिया, उन्होंने ऐसा समझा कि दुर्योधन चालकी से मुझे भ्रमित करना चाहता हैं, इसीलिए वह चुप ही रहे परंतु पितामह होने के कारण भीष्म जी को दुर्योधन की चालाकी में उसका बालपन दिखा। इसीलिए भीष्म जी ने द्रोणाचार्य के जैसे चुप न रहके, वात्सल्य भाव के कारण दुर्योधन के मन में हर्ष उत्पन्न करने के लिए शंख बजाते हैं।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शङ्खं दध्मौ : जिस तरह सिंह गर्जना से हाथी वगैरा बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं, वैसे ही मात्र गर्जना करने से सब भयभीत हो जाए और दुर्योधन प्रसन्न हो जाए, इस भाव के कारण भीष्म जी ने सिंह के भांति गर्जना करके जोर से शंख बजाया।
पितामह भीष्म ने शंख बजाय इसका क्या परिणाम आया? यह बात संजय अगले श्लोक में कहते हैं।
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