क्या बिना स्वार्थ के काम करना आज भी जरूरी है?

क्या बिना स्वार्थ के काम करना आज भी जरूरी है?

Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर || 9 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, यह मनुष्य समुदाय (अपने हित के लिए) दूसरे के कर्मों में लगा हुआ, उस यज्ञ के लिए किए गए कर्मों से बंधा हुआ है। इसलिए, हे कुन्तीनन्दन! तुम आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करो।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 9 Meaning in hindi

क्या हर कर्म यज्ञ बन सकता है? जानिए गीता में यज्ञार्थ कर्म की सही परिभाषा

-यज्ञार्थात कर्मणोऽन्यत्र

गीता के अनुसार कर्तव्य का नाम ‘यज्ञ’ है। ‘यज्ञ’ शब्द के अन्तर्गत यज्ञ, दान, तप, हवन, तीर्थ, व्रत, वेदाध्ययन आदि सभी भौतिक, व्यावहारिक और आध्यात्मिक कर्म आते हैं। कर्तव्य समझकर किए जाने वाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सभी शास्त्रविहित कर्म भी यज्ञ कहलाते हैं। जो भी कर्म दूसरों के सुख के लिए तथा अपने हित के लिए किए जाते हैं। वे सब यज्ञ-अर्थ कर्म हैं। यज्ञ हेतु कर्म करने से आसक्ति बहुत शीघ्र दूर हो जाती है और कर्मयोगी के सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। अर्थात् वे कर्म स्वयं बंधनकारक नहीं बनते, प्रत्युत पूर्वनिर्धारित कर्मसमूह को भी समाप्त कर देते हैं।

वास्तव में मनुष्य की स्थिति उसके उद्देश्य के अनुसार होती है न कि उसके कर्मों के अनुसार, जैसे एक व्यापारी का मुख्य उद्देश्य धन कमाना होता है, अतः वास्तव में उसकी स्थिति धन में ही रहती है और दुकान बंद करने के बाद भी उसकी प्रवृत्ति धन की ओर ही जाती है। इसी प्रकार यज्ञार्थ कर्म करते समय भी कर्म योगी की स्थिति उसके उद्देश्य – परमात्मा में ही रहती है। और जैसे ही उसका कर्म पूरा हो जाता है, उसकी प्रवृत्ति परमात्मा की ओर चली जाती है।

सभी जातियों के लिए अलग-अलग कर्म हैं। यदि कोई कर्म एक जाति के लिए स्वधर्म है, तो दूसरी जाति के लिए (क्योंकि वह विहित नहीं है) वह परधर्म हो जाता है, अर्थात अन्यत्र किया गया कर्म, उदाहरण के लिए, भिक्षाटन करके जीविका कमाना ब्राह्मण के लिए स्वधर्म है, परंतु क्षत्रिय के लिए परधर्म है। इसी प्रकार निष्काम भाव से अपना कर्तव्य करना व्यक्ति का स्वधर्म है, तथा लाभ की भावना से कर्म करना परधर्म है। सकाम और निषिद्ध सभी कर्म ‘अन्यत्र कर्म’ की श्रेणी में आते हैं। अपने सुख, मान, अभिमान, आराम आदि के लिए किए जाने वाले सभी कर्म भी ‘अन्यत्र कर्म’ हैं। इसलिए जो भी कर्म किया जाए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, साधक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कर्म किसी स्वार्थ से तो नहीं किया जा रहा है! साधक वह है जो निरंतर सतर्क रहता है। इसलिए साधक को अपनी साधना के प्रति सतर्क और जागरूक रहना चाहिए।

 क्या दिखावे या स्वार्थ से किया गया कर्म भी आध्यात्मिक हो सकता है?

-अन्यत्र कर्म

विषय में छिपे हुए दो भाव – (1) जब कोई व्यक्ति आता है, तो यदि उसके प्रति ‘आइये! बैठिये!’ आदि आदरसूचक शब्दों का प्रयोग करता है, किन्तु भीतर ही भीतर अपने को विनम्रता का गुणगान करता है अथवा कहता है कि ‘ऐसा कहने से मैं आने वाले पर अच्छा प्रभाव डालूँगा’ – तो उसमें स्वार्थ की भावना छिपी होने से वह ‘अन्यत्रकर्म’ है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।

(2) सत्संग, सभा आदि में यदि कोई व्यक्ति मन में ऐसा भाव रखकर प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोता उसे सुविज्ञ समझेंगे तथा मेरा उन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा, तो वह ‘अन्यत्रकर्म’ है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।

तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, किन्तु उसमें स्वार्थ, वासना आदि की भावना नहीं होनी चाहिए। कर्म का निषेध नहीं है, किन्तु फल की भावना का निषेध है।

अपने सुख के लिए किया गया कर्म बंधनकारी है, अपने स्वार्थ के लिए किया गया कर्म भी बंधनकारी है। अपने स्वार्थ पर ही दृष्टि रखने से व्यक्ति व्यक्ति बना रहता है। इसलिए लोक-कल्याण के लिए ही जप, तप, ध्यान, और समाधि के अतिरिक्त और क्या करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों द्वारा किए गए सभी कर्म संसार के लिए ही किए जाते हैं, अपने लिए नहीं। ‘कर्म’ संसार के लिए है और संसार से नाता तोडकर परमात्मा से ‘योग’ अपने लिए है। इसे ही कर्मयोग कहते हैं।

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 क्या इंसान कर्म से बंधता है या अपनी सोच से? जानिए गीता में कर्मबन्धन का रहस्य

-लोकोऽयं कर्मबन्धन:

अनिवार्य कर्म करने का अधिकार मुख्यतः मनुष्यों के लिए सुरक्षित है। इसका वर्णन भगवान ने सृष्टि की कथा में भी किया है। जिसका उद्देश्य केवल जीवों का हित करना तथा उन्हें सुख पहुंचाना है, जिसके माध्यम से अनिवार्य कर्म किए जाते हैं। जब मनुष्य दूसरों के हित के लिए न होकर केवल अपने सुख के लिए कर्म करता है, तब वह बंध जाता है। आसक्ति और स्वार्थ से कर्म करना बंधन का कारण है। आसक्ति और स्वार्थ न होने पर कर्म स्वतः ही सबके हित के लिए होते हैं। बंधन भावना से होता है, कर्म से नहीं। मनुष्य कर्मों से नहीं बंधता, बल्कि कर्मों में जो आसक्ति और स्वार्थ रखता है, उससे ही बंधता है।

क्या बिना फल की चिंता किए कर्म करना ही सच्चा त्याग है?

-तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर

यहाँ “मुक्तसङ्ग” शब्द का तात्पर्य यह है कि कर्मों में, पदार्थों में तथा जिस पदार्थ से कर्म किया जाता है, शरीर, मन, बुद्धि आदि में आसक्ति के कारण बंधन होता है। आसक्ति के कारण कर्तव्य स्वाभाविक रूप से तथा भलीभाँति नहीं होता। आसक्ति के अभाव से दूसरों के लिए कर्तव्य स्वतः ही हो जाता है तथा यदि कर्तव्य की सिद्धि न हो तो हम निर्विकल्प स्वरूप में स्थित हो जाते हैं। फलस्वरूप साधन निरन्तर होते रहते हैं तथा असाधन कभी नहीं होते।

आलस्य और प्रमाद के कारण अपने नियत कर्मों को त्याग देना ‘तामस त्याग’ कहलाता है, जिसका फल अज्ञान की प्राप्ति अर्थात् अज्ञान की शक्तियों की प्राप्ति है— ‘ज्ञान:’। दुःख समझकर कर्मों को त्याग देना ‘राजस त्याग’ कहलाता है, जिसका फल दुःख की प्राप्ति है। इसीलिए यहाँ भगवान अर्जुन को कर्मों का त्याग करने को नहीं कहते, अपितु स्वार्थ, आसक्ति, कर्म, वासना, पक्षपात आदि से रहित होकर शास्त्रविधि के अनुसार बहुत अच्छी तरह और उदारतापूर्वक अपने कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा देते हैं, जिसे ‘सात्त्विक त्याग’ कहते हैं। भगवान स्वयं आगे जाकर कहते हैं कि मेरे करने को कुछ भी शेष नहीं रहता, फिर भी मैं सावधानी से कर्म करता हूँ।

मनुष्य अपने कर्तव्यों का उचित पालन करने में दो कारणों से आलसी हो जाता है

(1) मनुष्य का स्वभाव है कि वह पहले फल की इच्छा से ही कर्म करता है। जब वह देखता है कि कर्मयोग के अनुसार उसे फल की इच्छा नहीं है, तब वह सोचता है, कर्म क्यों करें?

(2) कर्म आरंभ करने के बाद जब उसे अंततः यह पता चलता है कि परिणाम विपरीत होगा, तब वह सोचता है, कर्म अच्छा हो तो भी क्यों करें, लेकिन परिणाम विपरीत हो तो कर्म क्यों करें?

कर्मयोगी में न तो कोई इच्छा होती है, न ही उसे कोई नाशवान फल चाहिए, वह तो केवल संसार के हित को ध्यान में रखकर ही अपने कर्तव्यों का पालन करता है। अतः उपरोक्त दो कारणों से वह अपने कर्तव्यों में आलसी नहीं हो सकता।

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