
Bhagavad gita Chapter 3 Verse 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || 5 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुण ही उसके अधीन सभी प्राणियों द्वारा किए जाते हैं।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 5 Meaning in hindi
क्या सोचने और सोने को भी गीता में कर्म माना गया है?
कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग—किसी भी मार्ग पर साधक कर्म किये बिना नहीं रहता। तीसरा है ‘कश्चित्’, ‘क्षणम्’ और ‘जातु’ – ये तीन अनन्य पद हैं। इसमें ‘कश्चित्’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रहता, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी। यद्यपि ज्ञानी व्यक्ति का अपने शरीर से, जिसे वह अपना शरीर कहता है, कोई सम्बन्ध नहीं रहता, फिर भी उसका शरीर नाना प्रकार के कर्म करता रहता है। ‘क्षणम्’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि यद्यपि मनुष्य यह नहीं मानता कि ‘मैं नाना प्रकार के कर्म करता हूँ’, फिर भी जब तक वह शरीर के साथ अपने सम्बन्ध को मानता है, तब तक वह क्षण भर के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रहता। भगवान् कहते हैं कि मनुष्य किसी भी अवस्था में, चाहे वह जाग्रत हो, स्वप्न हो, सुषुप्ति हो, अचेतन हो आदि, कर्म किये बिना नहीं रह सकता। इसका कारण यह है कि भगवान् इस श्लोक के उत्तरार्ध में ‘अवश:’ पद से बताते हैं कि प्रकृति के अधीन होने के कारण मनुष्य को कर्म करने ही पड़ते हैं। प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है। साधक को अपने लिए कुछ नहीं करना पड़ता। जो भी नियत कर्म मन में आये, उसे दूसरों के हित के लिए ही करना पड़ता है। चूँकि उद्देश्य परमात्मा को प्राप्त करना है, इसलिए साधक निषिद्ध कर्म नहीं कर सकता।
बहुत से लोग केवल स्थूल शरीर की क्रियाओं को ही कर्म मानते हैं, किन्तु गीता मन की क्रियाओं को भी कर्म मानती है। गीता ने शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक रूप से किए गए सभी कर्मों को कर्म माना है, मनुष्य जिन-जिन शारीरिक या मानसिक क्रियाओं से अपने को सम्बन्धित मानता है, वे ही क्रिया ‘कर्म’ बनकर उसे बाँधते हैं, अन्य कर्म नहीं।
मनुष्यों की धारणा है कि वे बच्चों का पालन-पोषण तथा जीविकोपार्जन – व्यापार, नौकरी, अध्यापन आदि को ही कर्म मानते हैं और इसके अतिरिक्त वे खाना-पीना, सोना, बैठना, विचार करना आदि को कर्म नहीं मानते। इसी कारण से कुछ मनुष्य व्यापार आदि का परित्याग कर देते हैं और सोचते हैं कि वे कर्म नहीं कर रहे हैं। परन्तु यह उनकी बहुत बड़ी भूल है। स्थूल शरीर की शरीर-पालन सम्बन्धी क्रियाएँ, सूक्ष्म शरीर की निद्रा, विचार करना आदि क्रियाएँ तथा कारण शरीर की समाधि आदि क्रियाएँ – ये सब कर्म हैं। जब तक शरीर में अपरिग्रह है, तब तक शरीर द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य ‘कर्म’ हैं। क्योंकि शरीर प्रकृति का कार्य है और प्रकृति कभी निष्क्रिय नहीं होती। अतः शरीर में अपरिग्रह होने से कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में, चाहे वह अवस्था क्रिया की हो या निवृत्ति की, क्षण भर के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता।
यह भी पढ़ें : क्या साधक वास्तव में ‘इच्छा रहित’ हो सकता है? गीता क्या कहती है?
क्या हमारी इच्छाएं हमें प्रकृति के अधीन बना देती हैं?
प्रकृति के गुण ही अपने अधीन प्राणियों से कर्म करवाते हैं। अधीन होने से प्रकृति के गुणों से कर्म होते हैं, क्योंकि प्रकृति और उसके गुण निरन्तर क्रियाशील रहते हैं। यद्यपि जीवात्मा स्वयं निष्क्रिय, अनासक्त, अविनाशी, अपरिवर्तनशील और निर्लिप्त है, तथापि जब तक वह अपने को प्रकृति और उसके कार्यों-स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों-से सम्बन्धित मानता है और उनके द्वारा सुख की इच्छा करता है, तब तक वह प्रकृति के अधीन रहता है।
प्रकृति वृत्तियों से बनती है, वृत्तियाँ गुणों से बनती हैं और गुण प्रकृति से बनते हैं। इसलिए चाहे प्रकृति को विषय कहो, चाहे गुणों को विषय कहो, चाहे प्रकृति को विषय कहो। सब एक ही बात है। वास्तव में सबके मूल में प्रकृतिजन्य पदार्थों की अधीनता है। इसी अधीनता से सारे विषय उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रकृतिजन्य पदार्थों की अधीनता को काल की, प्रकृति की, कर्म की और गुणों की अधीनता कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जब तक यह जीव प्रकृति और उसके गुणों से परे नहीं हो जाता, जब तक यह परब्रह्म को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक यह जीव गुण, काल, प्रकृति आदि के अधीन रहता है, अर्थात् जब तक यह जीव प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता, प्रकृति में स्थित नहीं रहता, तब तक यह कभी काल के, कभी भोगों के, कभी प्रकृति के अधीन रहता है, कभी स्वतन्त्र (स्वतंत्र) नहीं रहता। इसके अतिरिक्त वह परिस्थितियों, व्यक्तियों, स्त्रियों, पुत्रों, धन, मकान आदि पर भी आश्रित हो जाता है। किन्तु जब वह गुणों से परे अपने स्वरूप या परमात्म तत्व का अनुभव कर लेता है, तब उसकी आश्रितता समाप्त हो जाती है और उसे स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाती है।
इस श्लोक में ऐसा कहा गया कि कोई भी मनुष्य कोई भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, इसके ऊपर शंका हो सकती हैं कि, “मनुष्य इंद्रियों की क्रियाओ को बलपूर्वक रोक कर खुद को निष्क्रिय मान सकता है।” इसका समाधान अगले श्लोक में कहते हैं।
FAQs
क्या मनुष्य बिना कर्म के रह सकता है?
नहीं, भगवद गीता के अनुसार कोई भी मनुष्य क्षण भर के लिए भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। चाहे वह जाग रहा हो, सो रहा हो या ध्यान कर रहा हो – प्रकृति के गुण उसे स्वतः ही कर्म में लगाते हैं। केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और वाचिक क्रियाएँ भी कर्म मानी जाती हैं। इसलिए “कुछ नहीं कर रहे” की भावना भी एक मानसिक कर्म है।
क्या केवल शरीर से किया गया कार्य ही कर्म होता है?
नहीं, गीता के अनुसार मन, वाणी और शरीर—तीनों के कार्यों को कर्म कहा गया है। सोचने, बोलने और करने – सब कुछ कर्म के अंतर्गत आता है।
क्या ध्यान या समाधि भी एक कर्म है?
हाँ, जब तक साधक अपने शरीर और मन से जुड़ा है, तब तक ध्यान, समाधि आदि भी मानसिक और सूक्ष्म कर्म माने जाते हैं।
क्या व्यापार, नौकरी ही कर्म हैं?
नहीं, केवल जीविकोपार्जन के कार्य ही नहीं, बल्कि खाना-पीना, सोचना, बोलना, बैठना जैसे सामान्य कार्य भी कर्म की श्रेणी में आते हैं।
क्या बिना काम किए जीना आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ है?
नहीं, गीता के अनुसार कर्म से भागना नहीं, बल्कि उसे समर्पण और निष्काम भाव से करना ही आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है।