गीता के अनुसार संशय को दूर करने का उपाय क्या है?

गीता के अनुसार संशय को दूर करने का उपाय क्या है?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४२॥

अर्थात भगवान कहते हैं, अतः हे भारतवंशी अर्जुन! अपने हृदय में अज्ञान से उत्पन्न हुए इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काटकर, योग (समता) में स्थित होकर और युद्ध के लिए उठ खडे हो जाव।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 42 Meaning in hindi

गीता के अनुसार संशय को दूर करने का उपाय क्या है?

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः छित्त्वैनं संशयं

पिछले श्लोक में भगवान ने यह सिद्धान्त बताया था कि जिसने समता द्वारा कर्मों से सब बन्धन तोड़ दिए हैं और ज्ञान द्वारा सब संशय नष्ट कर दिए हैं, वह आत्म-निर्भर कर्मयोगी कर्मों से नहीं बंधता, अर्थात् जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। अब भगवान ‘तस्मात्’ पद के द्वारा अर्जुन को ऐसा ही जानकर कर्तव्य करने की प्रेरणा देते हैं।

अर्जुन के हृदय में संशय था – युद्धरूपी भयंकर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याण के लिए मुझे कर्मयोग का अभ्यास करना चाहिए या ज्ञानयोग का? इस श्लोक में भगवान उस संशय को दूर करने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि संशय होने पर कर्तव्य का पालन ठीक से नहीं हो सकता।

अज्ञानसम्भूतं : इस पद  का अर्थ है कि सभी संशय अज्ञान से उत्पन्न होते हैं, अर्थात् कर्म और योग के तत्त्व को ठीक से न समझने से। कर्मों और पदार्थों को अपना और अपने लिए समझना अज्ञान है। जब तक यह अज्ञान बना रहता है, तब तक मन में संशय बना रहता है, क्योंकि कर्म और पदार्थ नाशवान हैं तथा रूप अविनाशी है।

गीता के अनुसार समभाव से कर्म करने पर मुक्ति कैसे मिलती है?

योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत

अर्जुन ने युद्ध को पाप माना था। इसीलिए भगवान अर्जुन को समभाव में स्थित रहकर युद्ध करने की आज्ञा देते हैं, क्योंकि समभाव में स्थित रहकर युद्ध करना पाप नहीं है (गीता Ch 2/38)। इसीलिए समभाव में स्थित रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करना ही कर्म-बन्धन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।

संसार में दिन-रात अनेक कर्म होते रहते हैं, किन्तु चूँकि उन कर्मों में राग या द्वेष नहीं होता, इसलिए हम संसार के उन कर्मों से बंधते नहीं, बल्कि अनासक्त रहते हैं। हम उन कर्मों से बंधते हैं जिनमें हम राग या द्वेष से आसक्त हो जाते हैं, क्योंकि राग या द्वेष हमारा कर्मों से सम्बन्ध जोड़ देता है। जब राग या द्वेष समाप्त हो जाता है, अर्थात् समता आ जाती है, तब हमारा कर्मों से सम्बन्ध नहीं जुड़ता, इस प्रकार व्यक्ति कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

यह भी पढ़ें :

कर्मयोग में आत्मज्ञान और निष्काम भाव का क्या महत्व है?

गीता के अनुसार संशयी व्यक्ति का क्या होता है?

श्रद्धा और संयम से कैसे मिलती है परम शांति?

क्या यज्ञ दान और तप से बढ़कर ज्ञान पवित्र है?

Scroll to Top