क्या आत्मा वास्तव में अविनाशी और नित्य है? श्रीकृष्ण का अर्जुन को उपदेश

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत || 18 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहने वाला यह शरीरी(आत्मा) का यह शरीर अंत वाला कहने में आया है, इसीलिए हे अर्जुन! तुम युद्ध करो

क्या आत्मा वास्तव में अविनाशी और नित्य है? श्रीकृष्ण का अर्जुन को उपदेश

Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 2 Shloka 18 Meaning in hindi

अनाशिन क्या आत्मा वास्तव में अविनाशी और नित्य है? श्रीकृष्ण का अर्जुन को उपदेश :

जो किसी भी कारण से, किसी भी समय, किंचित मात्र भी परिवर्तित नहीं होता, जिसका क्षय नहीं होता और जिसमें कमी नहीं होती, उसे ‘अनाशिन:’ अर्थात् अविनाशी कहते हैं।

अप्रमेयस्य:

जो प्रमाद का विषय नहीं है, अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियों का विषय नहीं है, उसे ‘अप्रमेय’ कहते हैं।

जिसमें हृदय और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं हैं, केवल शास्त्र, संत और महापुरुष ही प्रमाण हैं। जो लोग आस्थावान हैं उनके लिए धर्मग्रंथ, संत और महापुरुष प्रमाण बन जाते हैं। जो शास्त्रों और संतों पर विश्वास रखता है, वह शास्त्रों और संतों की बातों पर विश्वास करता है। इस कारण यह तत्व केवल विश्वास का विषय है, प्रमाण का विषय नहीं।

शास्त्र और संत किसी को भी हम पर विश्वास करने के लिए बाध्य नहीं करते। मनुष्य विश्वास करने या न करने के लिए स्वतंत्र है। यदि उसे शास्त्रों और संतों की वाणी पर विश्वास है तो यह तत्व उसकी आस्था का विषय है, और यदि उसमें आस्था नहीं है, तो यह तत्व उसकी आस्था का विषय नहीं है।

नित्यस्य:

यह तत्व सदैव स्थिर रहनेवला है। कोई काल में यह नहीं रहता ऐसी बात नहीं, अर्थात यह सर्वे काल में सदा से रहता है।

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अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:

यह अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरी(आत्मा) के संपूर्ण संसार में जितने भी शरीर हैं, वह सभी अंत वाले कहने में आए हैं। अंत वाले कहने का तात्पर्य है कि, उनका प्रत्यक क्षण अंत हो रहा है। उसमें अंत के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं केवल अंत ही अंत है।

तस्माद्युध्यस्व भारत:

भगवान अर्जुन के लिए आज्ञा देते हैं कि, सत और असत को समान समझकर तुम युद्ध करो। अर्थात प्राप्त कर्तव्य का पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अंत वाला है, और शरीरी(आत्मा) अविनाशी हैं। यह दोनों शरीर शरीरी की दृष्टि से शोक करना शक्य ही नहीं इसीलिए शौक का त्याग करके युद्ध करो।

इस श्लोक तक शरीरी की अविनाशता को जानने वालों की बात बताई गई थी। अब, अनुप्रयोग और तुलना के माध्यम से उसी बिंदु को पुष्ट करने के लिए, अगला श्लोक उन लोगों के बारे में बोलता है जो यह नहीं जानते कि शरीरी अविनाशी है।

FAQs

‘अप्रमेय’ आत्मा का क्या अर्थ है?

‘अप्रमेय’ आत्मा का अर्थ है कि वह इन्द्रियों और मन से अनुभव या मापी नहीं जा सकती। उसका ज्ञान केवल शास्त्रों, संतों और महापुरुषों के माध्यम से होता है।

शरीर और आत्मा में क्या मुख्य अंतर है?

शरीर नश्वर और अंत वाला है जबकि आत्मा अविनाशी, अप्रमेय और नित्य है। शरीर बदलता है, आत्मा नहीं।

श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिए क्यों कहते हैं?

श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध का आदेश इसलिए देते हैं क्योंकि आत्मा अमर है और केवल शरीर का अंत होता है। इसलिए शोक का त्याग कर कर्तव्य पालन जरूरी है।

क्या आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शोक और भय पर काबू पाया जा सकता है?

जी हाँ, जब हम यह समझते हैं कि आत्मा अमर है और जीवन में हर क्षण क्षणिक है, तो हम शोक, भय और तनाव से ऊपर उठ सकते हैं।

क्या शास्त्र और संतों की बातों में आज भी विश्वास करना चाहिए?

यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में गहराई, दिशा और शांति चाहता है, तो शास्त्र और संतों की वाणी आज भी उतनी ही उपयोगी और प्रासंगिक है जितनी पहले थी।

आज के समय में ‘कर्तव्य’ का पालन कैसे समझें?

जैसे अर्जुन को युद्ध करने का कर्तव्य निभाने को कहा गया, वैसे ही आज हम सभी को अपने जीवन के हर क्षेत्र—परिवार, समाज, और कार्यस्थल—में ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।

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