शरीर और आत्मा में क्या अंतर है?

शरीर और आत्मा में क्या अंतर है?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 20

न जायते म्रियते वा कदाचि
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: |
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || 20 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, यह शरीरी ना ही कभी जन्म लेता है, और ना ही कभी मरता है, यह उत्पन्न होकर फिर से होने वाला नहीं! यह जन्म रहित नित्य निरंतर रहने वाला शाश्वत और पुराण (अनादी) है। शरीर के मारे जाने के बावजूद भी यह नहीं मरता।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 20 Meaning in hindi

न जायते म्रियते वा कदाचिन:

जिस तरह शरीर उत्पन्न होता है उस तरह यह शरीरी(आत्मा) कभी भी किसी भी समय उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदा का है, भगवान ने इस शरीरी को अपना अंश बता कर उसे सनातन कहा है।

यह शरीरी कभी मरता नहीं, मरण वह पामता है जो जन्म लेता है, और “म्रियते” का प्रयोग करके भगवान कहते हैं पिंड प्राण का वियोग होता है पिंड प्राण का वियोग शरीर में होता है परंतु शरीरी में संयोग वियोग दोनों नहीं होते, वे तो जैसा है वैसा ही रहता है, उसका मरण होता ही नहीं।

सब विकारों में जन्म लेना और मृत्यु पामना यह दो विकर्ण की मुख्य है इसलिए भगवान ने उसका दो बार निषेध किया है।

अयम भूत्वा भविता वा न भूय:

अविनाशी वस्तु शाश्वत उत्पत्ति और पुनर्अस्तित्व के अधीन नहीं होती, अर्थात् वह स्वयं अपरिवर्तनीय होती है। जिस प्रकार एक बच्चा जन्म लेता है, उसी प्रकार जन्म के बाद वह अस्तित्व में आता है। जब तक वह गर्भ में प्रवेश नहीं कर जाता, तब तक कोई नहीं कहता कि वह ‘बच्चे’ के रूप में मौजूद है। तात्पर्य यह है कि बच्चे का अस्तित्व उसके जन्म के बाद ही शुरू होता है, क्योंकि यही परिवर्तनशील अस्तित्व का आरंभ और अंत है। परन्तु इस शाश्वत सिद्धांत का अस्तित्व स्वयंसिद्ध एवं अपरिवर्तनीय है, क्योंकि इस अविनाशी शक्ति का न कोई आदि है, न कोई अंत।

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अज:

इस शरीरी (आत्मा) का कभी जन्म नहीं होता, इसीलिए वह अज: अर्थात जन्मरहित कहलाता है।

नित्य:

यह शरीरी नित्य निरंतर रहने वाला है, इसलिए इसका कभी विनाश होता ही नहीं विनाश तो अनित्य वस्तु का होता है कि जो निरंतर रहने वाली नहीं। जिस तरह आधी उम्र बीतने के बाद शरीर घटने लगता है, बल कम होने लगता है, और इंद्रियों की शक्ति कम होने लगते हैं उसी प्रकार शरीर, इंद्रियों अंत: करण वगैरा का विनाश होता है। परंतु शरीरी का विनाश नहीं होता। यह नित्य तत्व में कभी किंचित मात्र भी कमी नहीं होती।

शाश्वत:

यह नित्य तत्व निरंतर एक रूप और एक रस रहने वाला है। उसमें अवस्थाओं का परिवर्तन नहीं होता, अर्थात यह कभी बदलता नहीं! उसमें बदलने की क्षमता ही नहीं।

पुराण:

यह अविनाशी तत्व पुराण अर्थात अनादी है। यह इतना प्राचीन है कि, यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होने वाली चीजों में भी देखने में आता है कि, जो चीज पुरानी हो जाती हैं वह फिर से बढ़ती नहीं बल्कि नाश हो जाती हैं। तो फिर यह तो अनुत्पन्न है। उसमें वृद्धि रूपी विकर कैसे हो सकता है? तात्पर्य है की वृद्धि रूपी विकार तो उत्पन्न होने वाली चीजों में ही होता है, यह नित्य तत्व में नहीं।

शरीर और आत्मा में क्या अंतर है?

शरीर का नाश होने के बावजूद भी यह अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता। यहां शरीरे पद देने का तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होने वाला है। यह इस नष्ट होने वाले शरीर में ही छह विकार होते हैं शरीरी(आत्मा) में नहीं।

अर्जुन युद्ध में कुटुंबियों के मरने की आशंका से विशेष शोक कर रहे थे! यह शौक दूर करने के लिए भगवान ने कहा है कि, शरीर के मरने के बावजूद भी इस शरीरी का मरण नहीं होता, अर्थात इसका अभाव नहीं होता इसलिए शौक करना अनुचित है।

FAQs

आत्मा कभी मरती क्यों नहीं है?

क्योंकि आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और अनादि है। शरीर नष्ट होता है, आत्मा नहीं।

क्या मृत्यु जीवन का अंत है?

नहीं, मृत्यु केवल शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। आत्मा का अस्तित्व हमेशा बना रहता है।

क्या आत्मा पुनर्जन्म लेती है?

हाँ, आत्मा एक शरीर को त्याग कर दूसरे में प्रवेश करती है, लेकिन वह स्वयं जन्म नहीं लेती।

हमें अपनों की मृत्यु पर शोक क्यों नहीं करना चाहिए?

क्योंकि केवल उनका शरीर नष्ट हुआ है, आत्मा अमर है और वह आगे जीवन की यात्रा में है।

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