रिश्तों और चाहतों से मुक्त होकर क्या मिल सकती है सच्ची शांति?

रिश्तों और चाहतों से मुक्त होकर क्या मिल सकती है सच्ची शांति?

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च || 52 ||

अर्थात भगवान कहते हैं जिस समय तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी कदव से तर जायेगी, उस समय तूम सुना हुआ और सुनने में आने वाले भोगों से वैराग्य को प्राप्त कर लेगा।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 52 Meaning in hindi

क्या रिश्तों और लगाव में उलझकर हम अपनी असली तरक्की भूल रहे हैं?

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति

शरीर में अहंकार और आसक्ति रखना तथा शरीर से संबंधित माता-पिता, भाई-बहन, संतान, वस्तु आदि में आसक्ति रखना मोह है, क्योंकि इस शरीर आदि में अहंकार नहीं है, यह तो केवल हमारा माना हुआ है। अनुकूल वस्तु, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि मिलने पर प्रसन्न होना तथा प्रतिकूल वस्तु, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि मिलने पर दुखी होना, संसार में तथा परिवार में कलह, पक्षपात, ईर्ष्या आदि उत्पन्न करना – यह सब ‘कलिल’ अर्थात् कीचड़ है। जब बुद्धि इस मोह रूपी कीचड़ में फंस जाती है, तब मनुष्य कर्म के प्रति अंधा हो जाता है। तब उसे कुछ भी समझ में नहीं आता।

वह चेतन होते हुए भी खुद को शरीर आदि जड़ पदार्थों से सम्बन्धित मानता है, उनमें अपना अहं भाव रखता है। परन्तु वास्तव में वह जिन वस्तुओं का संग करता है, वे सदा उसके साथ नहीं रह सकतीं, और वह भी सदा उनके साथ नहीं रह सकता। परन्तु मोह के कारण वह उससे विमुख नहीं होता, बल्कि वे नये-नये सम्बन्ध बनाकर संसार में और अधिक उलझता जाता है। जैसे यात्री अपने गन्तव्य पर पहुँचने से पहले मार्ग में ही अपना डेरा डाल देता है और खेल-कूद, परिहास आदि में अपना समय व्यतीत करता है, उसी प्रकार जब मनुष्य यहाँ नाशवान वस्तुओं का संग्रह करके उनसे सुख प्राप्त करने लगता है तथा लोगों, कुटुम्बियों आदि से स्नेह रखने लगता है, तो इसे उसकी बुद्धि का मोह रूपी कीचड़ में फँस जाना कहते हैं।

क्या हमें शरीर में अहंकार रखकर और कुटुंब में ममता रखकर कुछ समय तक यहीं रहना चाहिए? क्या हमें उनमें फँसकर कुछ समय तक अपनी वास्तविक उन्नति (कल्याण) से वंचित रहना चाहिए? क्या हमें उनमें फँसकर अपना कल्याण नहीं करना चाहिए? ऐसा दृढ़ निश्चय बुद्धि के मोहरूपी कीचड़ में तैरना कहलाता है। क्योंकि ऐसे दृढ़ निश्चय से बुद्धि संसार के सम्बन्धों से बाधित नहीं होगी, संसार से आसक्त नहीं होगी।

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मोह रूपी कीचड़ से निकलने के दो उपाय हैं – 

विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन Ch 2/11-30 में किया गया है) यदि प्रबल हो तो वह मिथ्या विषयों में विरक्ति कर देता है। यदि मन में दूसरों की सेवा करने की, दूसरों को सुख पहुँचाने की इच्छा भर जाए तो अपने सुख-आराम को त्यागने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। दूसरों को सुख पहुँचाने की इच्छा जितनी प्रबल होगी उतना ही मनुष्य अपने सुख की इच्छा को त्याग देगा। जैसे शिष्य में गुरु को सुख पहुँचाने की इच्छा, पुत्र में माता-पिता को सुख पहुँचाने की इच्छा, सेवक में स्वामी को सुख पहुँचाने की इच्छा, तो उनकी अपने सुख-आराम की इच्छा स्वतः ही सहज ही दूर हो जाती है। वैसे ही जब कर्मयोगी में संसार की सेवा करने की इच्छा उत्पन्न होती है तो उसके अपने सुख की इच्छा स्वतः ही दूर हो जाती है।

विवेक के द्वारा भोगों की इच्छा को दूर करना कुछ कठिन है। क्योंकि विवेक यदि बहुत प्रबल न हो, तो भोगों के सामने आने तक ही काम करता है। भोगों के सामने आने पर साधक प्रायः उनसे विमुख हो जाता है। परन्तु जिसके मन में सेवा की भावना है, वह जब उसके सामने सबसे अधिक भोग भी आ जाते हैं, तब भी उन भोगों को दूसरों की सेवा में लगाता है। इसलिए उसकी अपनी सुख-सुविधा की इच्छा सहज ही दूर हो जाती है। इसीलिए भगवान ने सांख्य योग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ, सुगम तथा शीघ्र सिद्ध होने वाला बताया है।

क्या भोगों की दौड़ से निकलकर मिल सकती है सच्ची शांति?

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च

मनुष्य ने जितने भी सुख सुने हैं, भली-भाँति भोगे हैं, वे सभी सुख यहाँ ‘श्रुत’ अवस्था के अन्तर्गत आते हैं। स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि के जितने भी सुख सुने जा सकते हैं, वे सभी यहाँ ‘श्रुतव्यास्य’ अवस्था के अन्तर्गत आते हैं। जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ को पार कर जाएगी, तब इन ‘श्रुत’-सांसारिक और ‘श्रुतव्यास्य’-सांसारिक सुखों और विषयों से तुम्हारी वैराग्यता हो जाएगी। तात्पर्य यह है कि जब बुद्धि मोह रूपी कीचड़ को पार कर जाती है, तब बुद्धि में यह प्रखर विवेक जागृत होता है कि संसार तो क्षण-क्षण बदलता रहता है और मैं वही रहता हूँ, तो मुझे इस संसार में शान्ति कैसे मिल सकती है? मेरा अभाव कैसे दूर हो सकता है? तब ‘श्रुत’ और ‘श्रुतव्य’ आदि सभी विषयों से स्वतः ही वैराग्य हो जाता है।

यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ कहने का तात्पर्य यह है कि इस ‘श्रुत’ और ‘श्रौव्य’ विषय से इतने वर्षों में, इतने महीनों में और इतने दिनों में वैराग्य हो ही जायेगा, ऐसा कोई नियम नहीं है, परन्तु जिस क्षण बुद्धि मोहरूपी कीचड़ को पार कर जायेगी, उसी क्षण ”श्रुत’ और ‘श्रौतव्य’ विषयों और भोगों से वैराग्य हो ही जायेगा। उसमें विलम्ब का प्रश्न ही नहीं है।

FAQs

रिश्तों और चाहतों से मुक्त होकर क्या मिल सकती है सच्ची शांति?

हाँ, जब बुद्धि मोह रूपी कीचड़ को पार कर लेती है, तब व्यक्ति को संसारिक सुखों और रिश्तों से वैराग्य स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।

क्या रिश्तों और इच्छाओं में उलझकर हम सच्ची शांति से दूर हो जाते हैं?

जी हाँ, जब हम संबंधों और चाहतों में उलझ जाते हैं, तब हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और हम आत्मिक शांति से वंचित रह जाते हैं।

मोह से बाहर निकलने का सबसे सरल उपाय क्या है?

सेवा भावना और विवेक—ये दो मुख्य उपाय हैं। सेवा मन में त्याग और समर्पण पैदा करती है, जबकि विवेक भोगों से विरक्ति देता है।

क्या संसार से जुड़कर भी वैराग्य पाया जा सकता है?

हाँ, कर्मयोग के माध्यम से संसार में रहते हुए भी वैराग्य और शांति प्राप्त की जा सकती है, जैसा भगवान ने गीता में बताया है।

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