कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है – ज्ञानयोग या कर्मयोग?

कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है – ज्ञानयोग या कर्मयोग?

Bhagavad gita Chapter 3 Verse 3

श्रीभगवानुवाच |
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || 3 ||

अर्थात भगवान ने कहा, “हे निष्पाप अर्जुन! मैंने पहले ही इस मानव संसार में होने वाली दो प्रकार की निष्ठाओं का उल्लेख किया है। उनमें से, ज्ञानी की निष्ठा ज्ञानयोग से होती है और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।”

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 3 Meaning in hindi

क्या आत्मकल्याण की इच्छा पापों को नष्ट कर सकती है?

अर्जुन द्वारा अपना पुण्य (कल्याण) पूछना ही उसकी निष्पापता है, क्योंकि अपने कल्याण की तीव्र इच्छा ही साधक के पापों को नष्ट कर देती है।

क्या केवल मानव जीवन में ही मोक्ष का अधिकार है?

यहाँ ‘लोके’ शब्द से मानव शरीर का बोध होना चाहिए, क्योंकि दोनों प्रकार के साधनों – ज्ञान योग और कर्म योग – की साधना का अधिकार अथवा साधक बनने का अधिकार मानव शरीर में ही है।

क्या समता की प्राप्ति के दो मार्ग हैं – ज्ञानयोग और कर्मयोग?

अर्थात् समता की एक ही अवस्था है, जो दो प्रकार से प्राप्त की जा सकती है- ज्ञान योग से और कर्म योग से। इन दोनों योगों का पृथक-पृथक विभाजन करने के लिए भगवान ने दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में कहा है कि इस समता की बात मैं सांख्य योग के विषय में (ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक) कह चुका हूँ। अब इसे कर्म योग के विषय में (उन्तालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक) सुनो-

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क्या आज के जीवन में ज्ञानयोग अहंकार को मिटा सकता है?

प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण गुण गुणों में कार्य कर रहे हैं, सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणों में, इन्द्रियों में हो रही हैं तथा उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है – ऐसा समझकर सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान को सर्वथा त्याग देना ही ‘ज्ञान योग’ है।

क्या बिना आसक्ति के कर्म करना ही सच्चा कर्मयोग है?

वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के अनुसार जो भी शास्त्रोक्त कर्तव्य हमारे सामने आये, उसे (उस कर्म और उसके फल में) वासना, ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग कर तथा कर्म की सफलता और असफलता में समभाव रखकर करना ही ‘कर्म योग’ है।

FAQs

कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है – ज्ञानयोग या कर्मयोग?

भगवद गीता के श्लोक 3.3 के अनुसार, दोनों मार्ग – ज्ञानयोग और कर्मयोग – अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं।
यदि आप संसार से विरक्त होकर आत्मचिंतन में रुचि रखते हैं और गहन विवेकशीलता रखते हैं, तो ज्ञानयोग उपयुक्त है।
लेकिन यदि आप गृहस्थ जीवन में रहते हुए आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं, तो कर्मयोग अधिक प्रासंगिक और व्यावहारिक है।
आज के व्यस्त और कार्यशील जीवन में, जहां जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य अनिवार्य हैं, कर्मयोग ही श्रेष्ठ मार्ग है — क्योंकि यह बिना आसक्ति के कर्म करते हुए अंततः मोक्ष की ओर ले जाता है।

क्या गृहस्थ व्यक्ति के लिए कर्मयोग ही उपयुक्त मार्ग है?

हाँ, गृहस्थ जीवन में कर्म करना अनिवार्य होता है। ऐसे में बिना फल की इच्छा और आसक्ति के कर्म करना — यानी कर्मयोग — व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से उन्नत करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।

कर्म करते हुए मोक्ष कैसे पाया जा सकता है?

भगवद गीता के अनुसार, यदि व्यक्ति निष्काम भाव से, कर्तापन के अभिमान को त्यागकर, ईश्वर को अर्पित करके कर्म करता है, तो वह कर्मबंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

क्या ज्ञानयोग केवल सन्यासियों के लिए है?

जी नहीं। ज्ञानयोग का अभ्यास कोई भी कर सकता है, लेकिन इसके लिए वैराग्य, एकाग्रता और गहन आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है। यह मार्ग अधिकतर उन्हीं के लिए उपयुक्त होता है जो संसार से विरक्त हो चुके हों।

ज्ञानयोग और कर्मयोग में क्या मुख्य अंतर है?

ज्ञानयोग में व्यक्ति आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर संन्यास की ओर अग्रसर होता है।
कर्मयोग में व्यक्ति कर्तव्य करता है, पर फल की अपेक्षा नहीं करता और मानसिक समता बनाए रखता है।

क्या कर्मयोग को आज के कॉर्पोरेट या ऑफिस जीवन में अपनाया जा सकता है?

बिल्कुल। ऑफिस या प्रोफेशनल जीवन में कर्मयोग का अभ्यास यह सिखाता है कि कार्य करते समय मन शांत और निष्काम रहे, फल की चिंता छोड़कर कर्तव्य निभाएं — यही सच्चा कर्मयोग है।

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