कर्म और अकर्म में अंतर क्या है? गीता का रहस्य

कर्म और अकर्म में अंतर क्या है? गीता का रहस्य

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । 
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥

अर्थात भगवान कहते हैं, कर्म क्या है और अकर्म क्या है – इस विषय में विद्वान् लोग भी मोहित हो जाते हैं। अतः मैं तुम्हें उस कर्म को स्पष्ट रूप से बताता हूँ, जिसे जानकर तुम अशुभ (संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 16 Meaning in Hindi

क्या कर्म से बचना सच में संभव है?

किं कर्म

सामान्यतः मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के कर्मों को कर्म मानते हैं और शरीर तथा इन्द्रियों के कर्मों के निरोध को अकर्म मानते हैं, किन्तु ईश्वर शरीर, वाणी और मन के सारी क्रियाओं को कर्मों मानते हैं।

यदि किसी व्यक्ति में राग, आसक्ति और फल की इच्छा है, तो वह कर्म न करते हुए भी वास्तव में कर्म हो ही रहा है, अर्थात् कर्मों में आसक्ति है। किन्तु यदि राग, आसक्ति और फल की इच्छा नहीं है, तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है, अर्थात् कर्मों से वैराग्य है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता अनासक्त है, तो कर्म करना या न करना—दोनों ही अकर्म हैं, और यदि कर्ता आसक्त है, तो कर्म करना या न करना—दोनों ही कर्म हैं और बंधनकारी हैं।

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क्या बिना कर्म छोड़े भी मुक्ति पाई जा सकती है?

किमकर्मेति

ईश्वर ने कर्म के दो प्रकार बताए हैं: कर्म और अकर्म। कर्म आत्मा को बांधता है और अकर्म (दूसरों के लिए काम करके) उसे मुक्त करता है।

कर्मों का त्याग अक्रम नहीं है। भगवान ने मोहपूर्वक किए गए कर्मों के त्याग को ‘तामस’ कहा है। शारीरिक कष्ट के भय से किए गए कर्मों के त्याग को ‘राजस’ कहा है। तामस और राजस के त्याग में कर्मों के रूप का त्याग होते हुए भी कर्मों से पृथकता नहीं रहती। कर्मों में फल और आसक्ति का त्याग ‘सात्त्विक’ है। सात्त्विक त्याग में रूप सहित कर्म करना भी वास्तव में अक्रम है, क्योंकि सात्त्विक त्याग में कर्मों से पृथकता रहती है। अतः कर्म करते हुए भी उनसे विरक्त रहना वास्तव में अक्रम है।

शास्त्रों के सार को जानने वाले विद्वान भी इस विषय से मोहित हो जाते हैं कि अकर्म क्या है। अतः उस तत्व को समझ लेने से, जो आत्मा को कर्म करने और न करने की दो अवस्थाओं में नहीं बाँधता, कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह समझ में आ जाएगा। अर्जुन युद्ध रूपी कर्म को न करने को ही हितकर मानता है। इसीलिए भगवान कहते प्रतीत होते हैं कि युद्ध रूपी कर्म को त्याग देने मात्र से तू अकर्म (बंधन से मुक्ति) को प्राप्त नहीं होगा, प्रत्युत युद्ध करते हुए भी तू अकर्म को प्राप्त हो सकता है, अतः अकर्म क्या है—इस तत्व को तुम्हे समझना चाहिए।

विरक्त रहते हुए भी कर्म करना, या कर्म करते हुए भी विरक्त रहना – यह वस्तुतः अकर्म की अवस्था है।

कर्म और अकर्म में अंतर क्या है? गीता का रहस्य

कवयोऽप्यत्र मोहिताः

कर्म और अकर्म के विषय में मौलिक निर्णय लेने की क्षमता एक साधारण मनुष्य में नहीं होती। शास्त्रों के ज्ञाता बड़े-बड़े विद्वान भी इस विषय में भूल कर बैठते हैं। उनकी बुद्धि भी कर्म और अकर्म के सार को समझने में भ्रमित रहती है। तात्पर्य यह है कि या तो कर्मयोग द्वारा सिद्धि प्राप्त दर्शनशास्त्र के महापुरुष ही इसका सार जानते हैं, या ईश्वर ही इसे जानते हैं।

कैसे कर्म करते हुए भी बंधन से मुक्त हो सकते हैं?

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि

यदि आत्मा कर्म से बंधी है, तो कर्म से ही मुक्त होगी। यहाँ भगवान् प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं कर्म का स्वरूप भली-भाँति समझाऊँगा, जिससे कर्म करते हुए भी वह बंधनकारी न हो। तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हें कर्म करने की विधि बताऊँगा, जिससे तुम कर्म करते हुए भी जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाओगे।

कर्म करने के दो मार्ग हैं—क्रिया मार्ग और निरोध मार्ग। क्रिया मार्ग को ‘कर्म करना’ और निरोध मार्ग को ‘कर्म न करना’ कहते हैं। ये दोनों मार्ग बंधनकारी नहीं हैं। जो बाँधते हैं वे हैं कामना, ममता और आसक्ति, चाहे वह कर्म मार्ग में हो या निरोध मार्ग में। यदि काम, आसक्ति और ममता न हो, तो व्यक्ति स्वतः ही क्रिया मार्ग और निरोध मार्ग, दोनों में मुक्त हो जाता है। इसे समझना ही कर्म के स्वरूप को समझना माना जाता है।

कौन सा कर्म जानकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है?

यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्

आत्मा स्वयं शुभ है और परिवर्तनशील संसार अशुभ है। यद्यपि आत्मा स्वयं परमात्मा का शाश्वत अंश है, तथापि वह परमात्मा से विरक्त होकर अनित्य संसार में फँसी हुई है। भगवान कहते हैं कि मैं उस कर्म का वर्णन करूँगा, जिसे जानकर और कर्म करके तू अशुभ से, अर्थात् संसार में जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाएगा।

अब भगवान अगले श्लोक में कर्मों के तत्वों को जानने की प्रेरणा करते हैं।

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