श्रीकृष्ण को अपने सभी जन्म कैसे याद हैं? क्या हम भी जान सकते हैं अपने पूर्वजन्म?

श्रीकृष्ण को अपने सभी जन्म कैसे याद हैं? क्या हम भी जान सकते हैं अपने पूर्वजन्म?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ॥५॥

श्री भगवान बोले – हे परंतप अर्जुन! तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं उन सबको जानता हूँ, परन्तु तुम नहीं जानते।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 5 Meaning in Hindi

क्या आत्मा और ईश्वर दोनों अनादि हैं? श्रीकृष्ण और अर्जुन के जन्म का रहस्य

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन

कालान्तर में तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हुए हैं। किन्तु मेरा जन्म भिन्न प्रकार का है (जिसका वर्णन आगे छठे श्लोक में होगा) और तुम्हारा (जीवन) जन्म भिन्न प्रकार का है (जिसका वर्णन आठवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में तथा तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें और छब्बीसवें श्लोक में होगा)। तात्पर्य यह है कि यद्यपि मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हुए हैं, फिर भी वे भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं।

दूसरे अध्याय के बारहवें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि मैं (ईश्वर) और तुम तथा ये राजा (जीव) पहले नहीं थे और बाद में भी नहीं होंगे—ऐसा नहीं है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर और उनका अंश, आत्मा—दोनों ही अनादि और शाश्वत हैं।

श्रीकृष्ण को अपने सभी जन्म कैसे याद हैं? क्या हम भी जान सकते हैं अपने पूर्वजन्म?

तान्यहं वेद सर्वाणि

साधना करने से व्यक्ति सिद्ध होता है। साधना करने से उसकी वृत्ति इतनी प्रखर हो जाती है कि उसे उस स्थान का ज्ञान हो जाता है जहाँ वह वृत्ति लगाता है। ऐसे योगी अपने पूर्वजन्मों को एक सीमा तक ही जान पाते हैं, सभी जन्मों को नहीं। इसके विपरीत, ईश्वर को “युक्तयोगी” कहते हैं, जो बिना साधना किए ही स्वयंसिद्ध और सनातन योगी हैं। उन्हें जन्मों को जानने के लिए वृत्ति नहीं लगानी पड़ती, अपितु उन्हें अपने और सभी जीवों के सभी जन्मों का स्वतः स्वाभाविक ज्ञान सदैव रहता है। उनके ज्ञान में भूत, भविष्य और वर्तमान का कोई भेद नहीं रहता, अपितु उनके अखण्ड ज्ञान में सब कुछ सदैव वर्तमान रहता है, क्योंकि ईश्वर सभी स्थानों, कालों, वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों आदि में पूर्णतः विद्यमान रहते हुए भी उनसे पूर्णतः स्वतंत्र रहते हैं।

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क्या इच्छाएँ ही हमें हमारे पूर्वजन्मों से दूर कर देती हैं?

न त्वं वेत्थ परंतप

जन्मों को न जानने का मूल कारण है – मन में नाशवान वस्तुओं का आकर्षण और महत्त्व। इसी कारण मनुष्य का ज्ञान विकसित नहीं होता। अर्जुन के मन में नाशवान वस्तुओं और व्यक्तियों का महत्त्व था, इसीलिए वह अपने परिजनों की मृत्यु के भय से युद्ध नहीं करना चाहता था। प्रथम अध्याय के तैंतीसवें श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख की कामना करते हैं, ये परिजन जीवन और धन की आशा छोड़कर युद्ध में डटे हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य, भोग और सुख चाहता था, इसलिए नाशवान वस्तुओं की कामना के कारण उसे अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान नहीं हुआ।

संसार (कर्म और वस्तुएँ) नित्य परिवर्तनशील और अनित्य है, अतः इसमें न्यूनताएँ (कमी) अवश्य रहेंगी। न्यूनता रूपी संसार के साथ जुड़ने से व्यक्ति को अपने अंदर न्यूनताएँ दिखाई देने लगती हैं। न्यूनताएँ दिखाई देने से उसके मन में यह इच्छा उत्पन्न होती है कि यह न्यूनता पूरी हो जाए, तो और अधिक मिलेगा। वह इसी इच्छा की पूर्ति में दिन-रात लगा रहता है। परन्तु इच्छा पूरी होने वाली नहीं है। इच्छाओं के कारण व्यक्ति अचेतन हो जाता है। अतः ऐसे व्यक्ति को न केवल अनेक जन्मों का ज्ञान नहीं रहता, अपितु वर्तमान में अपने कर्तव्य (वह क्या कर रहा है और उसे क्या करना चाहिए) का भी ज्ञान नहीं रहता।

इस श्लोक में भगवान ने बताया था कि तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हुए हैं। अब अगले श्लोक में भगवान अपने जन्म (अवतार) की विशिष्टता बताते हैं।

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