क्या मृत्यु के बाद जीवन सच में होता है?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 13

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || 13 ||

अर्थात भगवान कहते है, जिस प्रकार इस भौतिक मानव शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा आता है, उसी प्रकार दूसरा शरीर भी प्राप्त होता है। धैर्यवान व्यक्ति इससे प्रभावित नहीं होता।

क्या मृत्यु के बाद जीवन सच में होता है?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 13 Meaning in hindi

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा :

जीव के शरीर में पहले बचपन, फिर युवावस्था और फिर बुढ़ापा आता है। तात्पर्य यह है कि शरीर कभी एक अवस्था में नहीं रहता, वह निरंतर बदलता रहता है।

यहाँ ‘शरीर के शरीर में’ कहने से यह सिद्ध होता है कि शरीरी भिन्न है और शरीर भी भिन्न है। शरीरी दृष्टा है और शरीर ही दृश्य है। अतः बचपन आदि में शरीर में होने वाले परिवर्तन शरीरी में होने वाले परिवर्तन नहीं हैं।

तथा देहान्तरप्राप्ति क्या मृत्यु के बाद जीवन सच में होता है? :

जिस प्रकार शरीर बचपन, युवावस्था आदि अवस्थाओं से गुजरता है, उसी प्रकार मनुष्य को परलोक अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होता है। जिस प्रकार भौतिक शरीर बालक से युवा और युवा से वृद्ध हो जाता है, उन अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर कोई दुःख नहीं होता, उसी प्रकार जब शरीर एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाता है, तो इस विषय में भी कोई दुःख नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार स्थूल शरीर के रहते हुए ही बचपन, युवावस्था आदि अवस्थाएँ घटित होती हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म और कारण शरीर के रहते हुए ही परलोक की प्राप्ति होती है। अर्थात् जिस प्रकार बचपन, युवावस्था आदि स्थूल शरीर की अवस्थाएँ हैं, उसी प्रकार परलोक की प्राप्ति (मृत्यु के बाद दूसरा शरीर धारण करना) सूक्ष्म एवं कारण शरीर की अवस्था है।

जैसे-जैसे शरीर बदलता रहता है, जन्म, मृत्यु आदि की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। यह एक स्थूल दृष्टि है। यदि हम इसे सूक्ष्म दृष्टिकोण से देखें तो अवस्थाओं की तरह भौतिक शरीर में भी परिवर्तन होते हैं। बचपन में जो शरीर था, वह जवानी में नहीं है। वास्तव में, ऐसा कोई क्षण नहीं है जिसमें भौतिक शरीर में परिवर्तन न हो। इसी प्रकार सूक्ष्म और कारण शरीर में भी निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं, जो शरीर के भीतर से स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

अब विचार यह है कि हमें स्थूल शरीर का ज्ञान तो है, परन्तु सूक्ष्म और कारण शरीर का ज्ञान नहीं है। अतः यदि हमें सूक्ष्म और कारण शरीरों का ही ज्ञान नहीं है तो उनके परिवर्तन का ज्ञान कैसे हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार स्थूल शरीर का ज्ञान उसकी अवस्थाओं के कारण होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ज्ञान भी उसकी अवस्थाओं के कारण होता है। स्थूल शरीर को ‘जागृत’ अवस्था में, सूक्ष्म शरीर को ‘स्वप्न’ अवस्था में तथा कारण शरीर को ‘प्रसुप्ति’ अवस्था में माना जाता है। एक व्यक्ति अपने आप को बचपन में एक बच्चे के रूप में, युवावस्था में एक युवा के रूप में और बुढ़ापे में एक बूढ़े के रूप में देखता है। इससे सिद्ध होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर भी परिवर्तन से गुजरता है। इसी प्रकार नींद की अवस्था बचपन में अधिक, युवावस्था में कम तथा वृद्धावस्था में बहुत कम हो जाती है, अतः कारण शरीर का भी परिवर्तन हो गया। दूसरी बात, बचपन और जवानी में नींद शरीर और इंद्रियों में जो ताजगी लाती है, वह बुढ़ापे में नींद नहीं लाती। अंततः बुढ़ापे में व्यक्ति को बचपन और जवानी जैसा आराम नहीं मिलता। इस प्रकार भी कारण शरीर का परिवर्तन हो जाता है।

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जो व्यक्ति किसी अन्य शरीर को प्राप्त करता है – देवता, पशु, पक्षी आदि – और उस शरीर में शरीर ध्यान के कारण ‘मैं यह हूँ’ ऐसा अनुभव करता है, तो इस सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन हो गया है। इसी प्रकार कारण शरीर में भी एक स्वभाव (प्रकृति) है, जिसे स्थूल अर्थ में आदत कहते हैं। देवताओं के लिए वे आदतें अलग हैं और पशु-पक्षियों आदि के लिए अलग हैं, इसलिए शरीर बदल गया है।

यदि शरीर में परिवर्तन होता तो अवस्थाओं के परिवर्तन के साथ भी ‘मैं वही हूँ’ ऐसा ज्ञान नहीं होता, परंतु अवस्थाओं के परिवर्तन के बावजूद भी ‘मैं जैसा पहले था, बालक था, युवा था, अब भी वैसा ही हूँ’ ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर में, अर्थात् स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

यहाँ एक शंका उत्पन्न हो सकती है कि भौतिक शरीर की बदलती अवस्थाओं का ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है, किन्तु शरीर परिवर्तन की प्राप्ति से पूर्व के शरीर का ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त होता? पिछले शरीर का ज्ञान न होने का कारण यह है कि मृत्यु और जन्म के समय बहुत अधिक कष्ट होता है। उस दुःख के कारण बुद्धि को पूर्वजन्मों की स्मृति नहीं रहती। जैसे पक्षाघात और अति वृद्धावस्था में बुद्धि में पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, वैसे ही मृत्यु या जन्म के समय महान आघात लगने पर पूर्वजन्मों का ज्ञान नहीं रहता। परन्तु जो लोग मृत्यु के समय ऐसे कष्ट अर्थात् शरीर की स्थिति का अनुभव नहीं करते उनके लिए परलोक प्राप्ति भी परलोक प्राप्ति की तरह ही सहज है, तथा पूर्वजन्म की स्मृति बुद्धि में बनी रह सकती है।

अब विचार करें कि जो ज्ञान परात्पर अवस्था में प्राप्त होता है, वह शरीर की प्राप्ति में नहीं होता,  लेकिन हर किसी को अपनी शक्ति का, ‘मैं हूं’ का ज्ञान है। जैसे सुषुप्ति में व्यक्ति को स्वयं का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, किन्तु जागने पर व्यक्ति कहता है कि वह इतनी गहरी नींद में सो गया था कि उसे कुछ भी पता नहीं रहा, तब ‘कुछ भी पता न होने’ का ज्ञान होता है। सोने से पहले जो था, वही जागने के बाद भी है, और सोते समय भी वही था – इस प्रकार अपनी शक्ति का ज्ञान अखण्ड और निरन्तर बना रहता है। किसी को भी कभी अपनी शक्ति की कमी का एहसास नहीं होता। जब शरीर की सत्ता की सदिच्छा अक्षुण्ण रहती है, तब मुक्ति होती है और व्यक्ति मुक्त अवस्था में रहता है। हां, जीवनमुक्ति की अवस्था में शरीर के परिवर्तनों का ज्ञान भले ही न हो, लेकिन यह अनुभव अवश्य होता है कि वह तीनों शरीरों से भिन्न है।

र्धीरस्तत्र न मुह्यति :

धैर्यवान वह व्यक्ति है जिसने सत्य और असत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है। ऐसा धैर्यवान व्यक्ति कभी उस विषय में बहक नहीं जाता, उसे कभी संदेह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि धैर्यवान व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ऊर्ध्व और अधो योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का संग है और गुणों से युक्त होने के कारण धैर्यवान व्यक्ति को देहांतर प्राप्त नहीं हो सकता।

अनित्य चीज़ें शरीर वगैरह के कारण जो शौक होता है, उसकी निवृत्ति के लिए भगवान अगले श्लोक में कुछ कहते हैं।

FAQs

शरीर और आत्मा अलग-अलग कैसे हैं?

आत्मा स्थायी है और शरीर अस्थायी। शरीर में बदलाव होते रहते हैं लेकिन “मैं” का अनुभव हमेशा एक जैसा रहता है – यही आत्मा का प्रमाण है।

क्या मृत्यु के बाद नया जन्म होता है?

भगवद गीता के अनुसार, आत्मा शरीर बदलती है जैसे हम पुराने कपड़े बदलते हैं। यह जन्म-मृत्यु के चक्र का हिस्सा है।

पूर्व जन्म की याद क्यों नहीं रहती?

जन्म और मृत्यु के समय अत्यधिक पीड़ा के कारण बुद्धि क्षीण हो जाती है, जिससे पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रह पाती।

जीवन में दुख क्यों आता है अगर आत्मा अमर है?

दुख शरीर और मन से जुड़ा होता है, आत्मा उससे परे है। आत्मज्ञान से व्यक्ति दुखों से ऊपर उठ सकता है।

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