Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 45
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: || 45 ||
अर्थात अर्जुन कहते है,यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमने घोर पाप करने का निश्चय कर लिया है, कि राज्य और सुख के लोभ में हम अपने ही सगे-संबंधियों की हत्या करने पर उतारू हो गये हैं!

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 45 Meaning in hindi
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:
दुर्योधन आदि दुष्ट हैं। धर्म के बारे में उनका कोई दृष्टिकोण नहीं है। वे लालच से प्रेरित हैं। इस कारण से वे युद्ध के लिए तैयार है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन हम जो सही और गलत, कर्तव्य और अकर्तव्य, तथा पाप और पुण्य को जानते हैं। इतने ज्ञानी होने के बावजूद भी हम अज्ञानी लोगों की तरह घोर पाप करने लिए तैयार हो गये है। इतना ही नहीं, हम युद्ध में अपने ही रिश्तेदारों को मारने के लिए हथियार उठाने को तैयार हैं! यह हमारे लिए बहुत आश्चर्य और खेद की बात है। यह हर तरह से अनुचित बात है।
जो हम जानते हैं, जो हमने शास्त्रों से सुना है, हमने अपने गुरुओं के माध्यम से जो भी शिक्षा प्राप्त की है, अपने जीवन को सुधारने के लिए जो भी विचार हमने रखे हैं, उन सबका अनादर करते हुए, आज हमने युद्ध का पाप करने का निर्णय लिया है – यह बहुत बड़ा पाप है, ‘महतपापम्’
क्या लोभ हमें अपनों की हत्या तक ले जा सकता है?
पाप करने के दृढ़ निश्चय तथा अपने सम्बन्धियों को मारने की तत्परता का एकमात्र कारण राज्य और सुख का लोभ ही है। तात्पर्य यह है कि यदि हम युद्ध जीत गए तो, हम राज्य और वैभव प्राप्त करेंगे, हमारा सम्मान होगा, हमारा गौरव बढ़ेगा, सम्पूर्ण राज्य पर हमारा प्रभाव होगा, सर्वत्र हमारी ही हुकूमत चलेगी, क्योंकि हमारे पास धन होगा, अतः हम अपनी इच्छानुसार सुख-सुविधाएँ जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे – इस प्रकार हम राज्य और सुख के लोभ से ग्रसित हो जाएंगे, जो हम जैसे मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है।
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इस श्लोक में अर्जुन कहना चाहता है कि अपने अच्छे विचारों और अपने ज्ञान का सम्मान करके ही मनुष्य शास्त्रों, गुरुओं आदि की आज्ञा का पालन कर सकता है। लेकिन जो व्यक्ति अपने अच्छे विचारों का अनादर करता है, वह शास्त्रों, गुरुओं और सिद्धांतों की अच्छी बातें सुनकर भी उन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। अपने स्वयं के अच्छे विचारों का बार-बार अनादर और तिरस्कार करने से अच्छे विचारों का निर्माण रुक जाता है। तो फिर मनुष्य को पाप करने से कौन रोकेगा? इसी प्रकार यदि हम अपने ज्ञान का सम्मान नहीं करेंगे तो हमें बुराई के मार्ग पर चलने से कौन रोक सकता है? हमें कोई नहीं रोक सकता.
यहाँ अर्जुन की दृष्टि युद्धरूपी की क्रिया की ओर है। वे युद्ध को पाप मानते हैं और स्वयं को इससे दूर रखना चाहते हैं, लेकिन अर्जुन को यह समझ में नहीं आ रहा कि असली दोष क्या है। युद्ध में कुटुम्ब-मोह, स्वार्थ और वासना के ही दोष होते हैं, किन्तु अर्जुन यहाँ उस ओर न देखने के कारण आश्चर्य और खेद प्रकट कर रहे है, जो वास्तव में किसी भी विचारशील, धर्मपरायण और वीर क्षत्रिय को शोभा नहीं देता।
आश्चर्य और खेद से अभिभूत अर्जुन अगले श्लोक में अपने तर्कों का अंतिम निर्णय बताते है।
FAQs
अर्जुन ने भगवद गीता के श्लोक 1.45 में क्या कहा है?
अर्जुन ने कहा कि यह अत्यंत खेदजनक है कि हम राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों की हत्या करने को तैयार हो गए हैं, जो एक घोर पाप है।
क्या युद्ध को अर्जुन ने पाप माना है?
हाँ, अर्जुन युद्ध को पाप मानते हैं, विशेषकर जब वह स्वार्थ, लोभ और मोह से प्रेरित हो। वे इसे धर्मविरुद्ध मानते हैं।
अर्जुन को युद्ध में किस बात का सबसे अधिक दुःख है?
अर्जुन को सबसे अधिक दुःख इस बात का है कि वे जानते हुए भी—धर्म, शास्त्र और गुरु की शिक्षाओं को त्यागकर—पाप करने जा रहे हैं।