क्या हमारे सुख-दुख की प्रतिक्रियाएं हमें अस्थिर बनाती हैं? गीता से जानें समाधान

क्या हमारे सुख-दुख की प्रतिक्रियाएं हमें अस्थिर बनाती हैं? गीता से जानें समाधान

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 57

य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || 57 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, सारी जगह पर आसकती रहित हुआ जो मनुष्य शुभ अशुभ को प्राप्त करके ना तो अभिनंदन होता है और ना तो द्वेष करता है उनकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 57 Meaning in hindi

य: सर्वत्रानभिस्नेह

जो सर्वत्र आसक्ति से रहित है, अर्थात् जिसका अपने तथाकथित शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, तथा स्त्री, पुत्र, घर, धन आदि किसी में भी आसक्ति नहीं है। मैं इसलिए जीया कि वस्तुएँ थीं, और इसलिए मर गया कि वे लुप्त हो गईं, मैं इसलिए बड़ा हुआ कि धन आया, और इसलिए मर गया कि धन चला गया – इस प्रकार वस्तु आदि में जो एकत्व के समान स्नेह है, उसे ‘अभिस्नेह‘ कहते हैं। स्थिर बुद्धि वाले कर्मयोगी को किसी भी वस्तु आदि में यह आसक्ति नहीं होती। यद्यपि बाहर से वस्तुओं, व्यक्तियों, पदार्थों आदि में सम्बन्ध होता है, फिर भी वह अन्दर से सर्वथा अनासक्त रहता है।

क्या हमारे सुख-दुख की प्रतिक्रियाएं हमें अस्थिर बनाती हैं? गीता से जानें समाधान

तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् नाभिनन्दति न द्वेष्टि 

जब किसी व्यक्ति के सामने शुभ-अशुभ, सुन्दर-असुन्दर, अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तो वह अनुकूल परिस्थिति पर अपने आपको बधाई नहीं देता और प्रतिकूल परिस्थिति पर घृणा नहीं करता। अनुकूल परिस्थिति के कारण मन में जो प्रसन्नता उत्पन्न होती है और वह प्रसन्नता वाणी से भी प्रकट होती है तथा उसका उभार बाह्य रूप से भी प्रकट होता है—इसे उस परिस्थिति पर बधाई देना कहते हैं। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के कारण मन में जो दुःख और उदासी उत्पन्न होती है, यह कैसे और क्यों हुआ! यह न होता तो अच्छा था, अब यह जल्दी ही दूर हो जाए तो अच्छा है—इसे उस परिस्थिति पर घृणा करना कहते हैं। जो व्यक्ति सर्वत्र ममता से रहित और विरक्त रहता है, वह अनुकूल परिस्थिति पर अपने आपको बधाई नहीं देता और प्रतिकूल परिस्थिति पर घृणा नहीं करता। तात्पर्य यह है कि उसके पास अनुकूल, प्रतिकूल या अच्छे अवसर आते रहें, तो भी उसके भीतर वैराग्य सदैव बना रहता है।

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तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता

उसकी बुद्धि स्थिर, एकीकृत और एकरूप हो जाती है। साधना की अवस्था में जो व्यापार-बुद्धि उसमें थी, वह अब परमात्मा में अचल हो गई है। उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णतः जागृत हो गया है कि वास्तव में संसार में जो अच्छा है, उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि ये अच्छे अवसर तो परिवर्तनशील हैं, परन्तु मेरा स्वरूप परिवर्तनशील नहीं है, अतः अपरिवर्तनीय का परिवर्तनशील से सम्बन्ध कैसे हो सकता है?

वास्तव में देखा जाए तो रूप में कोई अन्तर नहीं है, न ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में। क्योंकि जो रूप है, वह कभी बदलता ही नहीं, और स्वभाव तथा प्रकृति के कार्य, शरीर आदि तो स्वाभाविक रूप से बदलते रहते हैं। तो अन्तर कहाँ है? शरीर आदि से तादात्म्य होने के कारण बुद्धि में अन्तर है। जब यह तादात्म्य हट जाता है, तो बुद्धि में जो अन्तर था, वह हट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।

दूसरा अर्थ यह है कि चाहे किसी की बुद्धि कितनी ही तीव्र क्यों न हो और चाहे वह अपनी बुद्धि से परमात्मा का कितना ही चिंतन क्यों न करे, वह परमात्मा को अपनी बुद्धि में नहीं ला सकता। क्योंकि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीमित अनंत है। लेकिन जब बुद्धि उस असीमित परमात्मा में लीन हो जाती है, तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के अलावा कोई अन्य सत्ता नहीं रहती-यही परमात्मा में बुद्धि का स्थापित होना है।

कर्मयोगी क्रियाशील होता है। इसलिए भगवान ने पचपनवें श्लोक में कर्म की सिद्धि-असिद्धि में अनासक्त और चिंता से मुक्त होने की बात कही है और इस श्लोक में अपने प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति मिलने पर अभिनंदन और द्वेष से मुक्त होने की बात कही है।

अब अगले श्लोक में भगवान, स्थितप्रज्ञ किस तरह बैठते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देना आरंभ करते हैं।

FAQs

क्या सुख‑दुख पर तेज़ प्रतिक्रिया देना हमें मानसिक अस्थिरता देता है?

हाँ, श्रीमद्भगवद गीता (2.57) बताती है कि सुख‑दुख पर अतिरंजित प्रतिक्रिया मन को डगमगाती है, तटस्थ रहना स्थिरता लाता है।

शुभ‑अशुभ परिस्थितियों में तटस्थ रहना क्या वास्तव में सम्भव है?

नियमित ध्यान, स्वाध्याय और कर्मयोग से प्रतिक्रियाएँ धीमी होती हैं, अभ्यास से तटस्थता संभव है।

“स्थितप्रज्ञ” बनने का सरल पहला कदम क्या है?

हर दिन कुछ मिनट भावनिरीक्षण (self‑reflection) कर यह देखें कि किस परिस्थिति ने आपको विचलित किया और क्यों।

कर्मयोग के अनुसार अनुकूल‑प्रतिकूल परिणामों को कैसे देखना चाहिए?

कर्म करें, पर फल की आसक्ति न रखें, सफलता‑विफलता दोनों को समान भाव से स्वीकारें।

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