क्या असंयमित इंद्रियाँ हमारी बुद्धि को भटका देती हैं?

क्या असंयमित इंद्रियाँ हमारी बुद्धि को भटका देती हैं?

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि || 67 ||

अर्थात भगवान् कहते है, अपने-अपने विषयों में विचरण करने वाली इन्द्रियों में से केवल एक इन्द्रिय ही मन को अपना उत्तराधिकारी बनाती है। वही मन जल में बहने वाली वायु के समान बुद्धि को हर लेता है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 67 Meaning in hindi

क्या इंद्रियाँ हमारे मन को नियंत्रण में ले लेती हैं?

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते

जब साधक कर्म क्षेत्र में सभी प्रकार की वस्तुओं का व्यवहार करता है, तो उनके संबंधित विषय इन्द्रियों के समक्ष आ जाते हैं। उनमें से जो इन्द्रियाँ अपने विषय में आसक्त हो जाती हैं, वह इन्द्रिय मन को अपना उत्तराधिकारी बना लेती है, मन को अपने साथ ले जाती है। इस प्रकार मन उस विषय का सुख भोगने लगता है। अर्थात् मन में सुख की बुद्धि और भोग की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। मन में उस विषय का रंग स्थिर हो जाता है, उसका महत्त्व स्थिर हो जाता है। जैसे, भोजन करते समय जब किसी भोजन का स्वाद आता है, तो जीभ उससे आसक्त हो जाती है। आसक्ति के कारण जीभ मन को भी खींचती है, अतः मन उस स्वाद से प्रसन्न और तृप्त हो जाता है।

क्या मन की आसक्ति साधक की स्थिर बुद्धि को नष्ट करती है?

तदस्य हरति प्रज्ञाम 

जब मन में विष की महत्ता स्थिर हो जाती है, तब वह मन ही साधक की बुद्धि पर अधिकार कर लेता है, अर्थात् साधक में कर्तव्य का भाव नहीं रहता और भोग बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। उस भोग बुद्धि से साधक में ‘मैं तो केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता हूँ’ जैसी व्यासायात्मिक बुद्धि नहीं रहती। इस प्रकार की आलोचना करने में समय लगता है, परन्तु बुद्धि को विचलित होने में देर नहीं लगती, अर्थात् जब इन्द्रियाँ मन को अपना उत्तराधिकारी बना लेती हैं, तो तुरन्त ही मन में भोग बुद्धि उत्पन्न हो जाती है और उसी समय बुद्धि मर जाती है।

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क्या हमारी बुद्धि मन की दिशा में बहती नाव जैसी है?

वायुर्नावमिवाम्भसि

यह बुद्धि कैसे हर ली जाती है?, इसे एक उदाहरण से समझाया गया है : जैसे जल पर चलती हुई नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मन भी बुद्धि को हर लेता है। जैसे कोई व्यक्ति नाव में बैठकर नदी या सागर पार करके अपने गंतव्य की ओर जा रहा है, यदि हवा नाव से विपरीत दिशा में बहने लगे, तो वह हवा नाव को विपरीत दिशा में गंतव्य की ओर ले जाती है, ऐसे ही व्यापाररूपी आत्मा साधक बुद्धि रूपी नाव पर सवार होकर संसार सागर को पार करके परमात्मा की ओर जाता है, तब जो एक इन्द्रिय मन को अपना उत्तराधिकारी बनाती है, वही मन बुद्धि रूपी नाव को हर लेता है, अर्थात् संसार की ओर ले जाता है। इससे साधक को विषयों में सुखरूपी बुद्धि और अपने लिए उपयोगी पदार्थों में महत्त्वरूपी बुद्धि हो जाती है।

अयुक्त पुरुष की निश्चायतमीका बुद्धि क्यों नहीं होती? इसका कारण तो इस श्लोक में बता दिया, अब जो युक्त हैं उनकी स्थिति का वर्णन अगले श्लोक में करते हैं।

FAQs

क्या असंयमित इंद्रियाँ हमारी बुद्धि को भटका देती हैं?

हाँ, श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार एक इंद्रिय भी मन को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है, जिससे मन विषयों में फँसकर बुद्धि को भटका देता है।

इंद्रियों का मन पर नियंत्रण क्यों खतरनाक है?

क्योंकि जब इंद्रियाँ मन को नियंत्रित करती हैं, तो मन भोगों में लग जाता है और साधक की निश्चयवती बुद्धि नष्ट हो जाती है।

क्या इंद्रिय भोग आत्मिक प्रगति में बाधा हैं?

बिल्कुल, इंद्रिय भोगों की आसक्ति साधक को अपने कर्तव्य और ध्येय से भटका देती है।

मन बुद्धि को कैसे हर लेता है?

जैसे तेज़ हवा नाव को बहा ले जाती है, वैसे ही इच्छाओं से भरा मन बुद्धि को भोगों की दिशा में मोड़ देता है।

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