आज के व्यस्त जीवन में समता का अभ्यास कैसे करें?

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव: || 49 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, बुद्धि योग समता की अपेक्षा से सकाम कर्म दर से अत्यंत ही निकृष्ट है, इसीलिए है धनंजय! तुम बुद्धि समता का आश्रय लो, क्योंकि फल का निमित बनने वाले अत्यंत दिन है।

आज के व्यस्त जीवन में समता का अभ्यास कैसे करें?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 49 Meaning in hindi

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात [ क्या समता का अभ्यास हमारे आज के कर्मों को श्रेष्ठ बनाता है? ]

बुद्धियोग अर्थात् समता की आशा से उद्देश्यपूर्वक कर्म करना अत्यन्त बुरा है। क्योंकि कर्म भी बनते हैं और नष्ट होते हैं, तथा उन कर्मों के फल भी उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। परन्तु योग (समता) शाश्वत है, वह कभी नष्ट नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं है। अतः समता की आशा से उद्देश्यपूर्वक कर्म करना अत्यन्त बुरा है।

समता ही सभी कर्मों में श्रेष्ठ है। समता के बिना सभी जीव निरंतर कर्म करते रहते हैं और उन कर्मों के फलस्वरूप जन्म-मरण तथा दुःख भोगते रहते हैं। क्योंकि समता के बिना कर्मों में उद्धार करने की शक्ति नहीं होती। कर्मों में समता ही एकमात्र कुशलता है। यदि कर्मों में समता न हो तो शरीर में अहंकार होगा और शरीर में अहंकार होना ही पशु बुद्धि है। भगवद्गीता में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा है कि “त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि’’ अर्थात् हे राजन! अब आप यह पशु बुद्धि त्याग दो की मैं मर जाऊँगा।

दूरेण [ क्या आज के जीवन में बुद्धि योग और सकाम कर्म का अंतर जानना जरूरी है? ]

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार कभी समान नहीं हो सकते, उसी प्रकार बुद्धि योग और सकाम कर्म भी कभी समान नहीं हो सकते। इन दोनों में रात-दिन जितना अंतर है। क्योंकि बुद्धि योग परमात्मा प्राप्ति के लिए है और सकाम कर्म जन्म-मृत्यु देने के लिए है।

यह भी पढ़ें : कर्मण्येवाधिकारस्ते: क्या फल की इच्छा छोड़ना ही मोक्ष है?

बुद्धौ शरणमन्विच्छ

तुम बुद्धि (समता) की शरण लो। समता में स्थिर रहना ही समता की शरण लेना है। समता में स्थिर रहने से ही तुम अपने स्वरूप की स्थिति का अनुभव कर पाओगे।

कृपणा: फलहेतव: [ क्या आज के जीवन में हमें कर्मों के फलों की इच्छा से बचना चाहिए? ]

कर्मों के फलों की इच्छा करना अत्यन्त बुरा है। कर्म के कारणों, कर्म के फलों, कर्म के भौतिक पदार्थों और शरीर में आसक्त होना ही कर्मों के फलों का विषय बनना कहलाता है। इसलिए भगवान ने 47 वे श्लोक में “मां कर्मफलहेतुर्भू” कह कर कर्मों के फलों की इच्छा करने से मना किया है।

कर्म और कर्म के फलों का विभाग भिन्न है, तथा उन दोनों से मुक्त जो शाश्वत तत्त्व है उसका विभाग भी भिन्न है। वह शाश्वत तत्त्व शाश्वत कर्म फलों के अधीन हो जाए, इससे बुरा और क्या हो सकता है?

इस श्लोक में जो बुद्धि के आश्रित की बात की है, अब अगले श्लोक में उस बुद्धि के आश्रय का फल बताते है।

FAQs

समता का अभ्यास क्यों जरूरी है?

समता का अभ्यास मानसिक शांति और संतुलन बनाए रखता है। यह आपको तनाव से दूर करता है और जीवन में स्थिरता देता है।

समता का अभ्यास करने का सबसे सरल तरीका क्या है?

समता का अभ्यास करने का सबसे सरल तरीका है—कर्म करते हुए फल की इच्छा छोड़ देना और केवल कर्म पर ध्यान देना।

क्या समता का अभ्यास करने से जीवन में बदलाव आता है?

हाँ, समता का अभ्यास जीवन में सकारात्मक बदलाव लाता है। यह आपको कर्मों के फलों से मुक्त कर देता है और आत्मिक शांति देता है।

आज के व्यस्त जीवन में समता का अभ्यास कैसे करें

आज के व्यस्त जीवन में समता का अभ्यास करने के लिए सबसे जरूरी है – कर्म करते समय फल की चिंता छोड़ना और केवल अपने कर्म पर ध्यान देना। रोज़ सुबह कुछ मिनट ध्यान और आत्ममंथन करने से भी समता बनी रहती है। यही शांति और संतुलन पाने का सरल उपाय है।

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