कर्मण्येवाधिकारस्ते: क्या फल की इच्छा छोड़ना ही मोक्ष है?

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47 ||

अर्थात भगवान अर्जुन को कहते कहते हैं, कर्तव्य कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फलों में कभी भी नहीं! इसीलिए तुम कर्म फल की इच्छा वाले भी ना बनो और तुम्हारी अकर्मनियता में भी आसकती न हो।

कर्मण्येवाधिकारस्ते: क्या फल की इच्छा छोड़ना ही मोक्ष है?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 47 Meaning in hindi

कर्म करने में हमारी स्वतंत्रता का क्या मतलब है?

तुम्हारा अधिकार है कि जो कर्तव्य तुम्हें मिले हैं, उन्हें करो। उसमें तुम स्वतंत्र हो। क्योंकि मनुष्य योनि कर्म करने के लिए है। मनुष्य के अतिरिक्त कोई योनि नया कर्म करने के लिए नहीं है। पशु, पक्षी आदि जो चर हैं, तथा वृक्ष, लता आदि जो अचल हैं, वे नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदि में नया कर्म करने की शक्ति है, परन्तु वे केवल पूर्व में किए गए यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मों का फल भोगने के लिए हैं। वे मनुष्यों को भगवान के आदेशानुसार कर्म करने के लिए सामग्री दे सकते हैं, परन्तु वे केवल भोग में लिप्त होने के कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय प्राणी भी भोग योनि में रहकर अपने बुरे कर्मों का फल भोगते हैं तथा नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करने का अधिकार केवल मनुष्यों को है। भगवान ने यह अन्तिम मनुष्य जन्म सेवा रूपी नया कर्म करके अपना उद्धार करने के लिए ही दिया है। यदि तुम अपने लिए ही उन कर्मों को करोगे तो बंधन में पड़ोगे और यदि उन कर्मों को नहीं करोगे और आलस्य में पड़े रहोगे तो बार-बार जन्मते-मरते रहोगे। इसलिए भगवान कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार केवल सेवा-कर्तव्य करने में है।

कर्मणि 

इस पद में एकवचन देने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के समक्ष शास्त्रोक्त कर्म देश, काल, घटना, परिस्थिति आदि के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, किन्तु एक समय में व्यक्ति केवल एक ही कर्म तत्परता से कर सकता है। उदाहरण के लिए, क्षत्रिय होने के कारण अर्जुन को युद्ध करने, दान देने आदि का विधान है, किन्तु वर्तमान समय में युद्ध के समय वह केवल युद्ध रूपी एक ही कर्म कर सकता है, दान आदि कर्म नहीं कर सकता।

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फल की इच्छा छोड़ने से मन की शांति कैसे मिलती है?

फल में तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है अर्थात् फल प्राप्त करने में तुम्हे कोई स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि फल का नियम मेरे अधीन है। अतः तू फल की इच्छा न रखते हुए अपना कर्तव्य कर। यदि तू फल की इच्छा रखते हुए कर्म करेगा, तो तू बंध जाएगा। क्योंकि फल की इच्छा अर्थात् भोग की इच्छा ही कर्म का आधार है अर्थात् भोग से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। जब फल की इच्छा पूर्णतः नष्ट हो जाती है, तो कर्म नष्ट हो जाता है और जब कर्म नष्ट हो जाता है, तो मनुष्य कर्म करते हुए भी बंधता नहीं है। तात्पर्य यह है कि वास्तव में मनुष्य कर्म में उतना नहीं फँसा है, जितना कि फल की इच्छा अर्थात् भोग में फँसा है।

फलेषु

इस पद में बहुवचन का प्रयोग करने का अर्थ है कि व्यक्ति एक कार्य करता है, लेकिन उस कार्य के अनेक परिणाम चाहता है। उदाहरण के लिए, यदि मैं कोई कार्य कर रहा हूँ, तो मुझे पुण्य मिलेगा, मुझे संसार में यश मिलेगा, लोग मुझे अच्छा समझेंगे, मेरा सम्मान करेंगे, मुझे इतना धन मिलेगा, आदि।

निष्काम बनने के उपाय  [ कर्म करते हुए निष्कामता को कैसे अपनाएं? ]

(1) कामना के उत्पन्न होने से अभाव होता है, कामना की पूर्ति से परवशता होती है और पूर्ति नहीं होने से दुःख होता है, तथा कामना की पूर्ति का सुख नई कामनाओं को जन्म देता है तथा उद्देश्यपूर्वक नए कर्म करने की इच्छा बढ़ती रहती है – इसे ठीक से समझ लेने से निष्कामता अपने आप आ जाती है।

(2) कर्म शाश्वत नहीं हैं, क्योंकि उनका आरंभ और अन्त होता है तथा उन कर्मों के फल भी शाश्वत नहीं हैं, क्योंकि उनमें भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु वे स्वयं शाश्वत हैं। अनित्य कर्मों और कर्मों के फलों से शाश्वत स्वरूप को कोई लाभ नहीं होता। इसे ठीक से समझ लेने से निष्कामता आ जाती है। निष्काम होने से संसार से सम्बन्ध टूट जाता है और परमात्म तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है।

कर्म में निष्काम बनने के लिए साधक के पास प्रखर बुद्धि और सेवा भावना दोनों होनी चाहिए, क्योंकि इन दोनों से ही कर्म योग का भली-भाँति अभ्यास होगा, अन्यथा ‘कर्म’ तो हो जाएगा, लेकिन ‘योग’ नहीं मिलेगा। तात्पर्य यह है कि अपने सुख-चैन को त्यागने में बुद्धि को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और दूसरों को सुख-चैन प्रदान करने में ‘सेवा भावना’ को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

कर्मफल की आसक्ति से मानसिक तनाव क्यों बढ़ता है?

कर्मों के फल की इच्छा मत करो। तात्पर्य यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्मों के विषयों में किंचितमात्र भी आसक्ति मत रखो, क्योंकि इनमें आसक्ति होने से ही मनुष्य कर्मों के फल की इच्छा करता है। आगे पाँचवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहा है, कि शरीर आदि में किंचितमात्र भी आसक्ति मत रखो।

भले ही अच्छे कर्मों के फल की इच्छा न हो, लेकिन अगर ऐसा भाव हो कि, “मैंने किसी का उपकार किया है, मैंने किसी को सुख पहुँचाया है” – तो यह कर्म के फल की इच्छा करने वाला व्यक्ति बनने के बराबर है। क्योंकि ऐसा भाव होने से मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि अच्छे कर्मों से जुड़ जाते हैं, जो कि अ-अस्तित्व के ही सम्बन्ध हैं। वास्तव में हमारा अन्तः, बाह्य और कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड और जगत से है। जैसे, अगर किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा किसी दूसरे को लाभ होता है, तो हम अपने को उससे सम्बन्धित नहीं मानते, अपने को उसका कारण नहीं मानते। इसी तरह, अगर हमारे तथाकथित शरीर आदि के द्वारा किसी दूसरे को लाभ होता है, तो हमें अपने को उसका कारण नहीं मानना चाहिए। जब हम अपने को किसी भी कर्म का कारण या उद्देश्य नहीं मानेंगे, तो हम कर्म के फल की इच्छा करने वाले व्यक्ति नहीं बनेंगे।

क्यों कर्म न करने में भी आसक्ति नुकसानदायक है?

कर्म न करने में भी आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि कर्म न करने में आसक्ति से आलस्य, प्रमाद आदि उत्पन्न होंगे। जैसे कर्म के फलमें आसक्ति से बन्धन होता है, वैसे ही कर्म न करने में आलस्य, प्रमाद आदि उत्पन्न होते हैं। क्योंकि आलस्य में भी भोग है अर्थात् सुख है, जो तमोगुण है – और जिसका फल पतन हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ राग है, आसक्ति है, वहाँ वह अज्ञानका गुण है।

इस श्लोक में भगवान का अभिप्राय यह समझा गया है कि साधक परिवर्तनशील वस्तुओं, व्यक्तियों, पदार्थों, क्रियाओं, घटनाओं, परिस्थितियों, अवस्थाओं, स्थूल-सूक्ष्म कारण शरीरों आदि से सर्वथा विरक्त हो जाए। उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखे। 

इस श्लोक के चारों चरणों में चार बातें कही गई हैं- 

(1) कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, 

(2) फल में तेरा कोई अधिकार नहीं है, 

(3) कर्म के फल की भी इच्छा न हो, तथा 

(4) कर्म न करने में तेरी आसक्ति न हो। 

इसमें पहला और चौथा चरण एक है, तथा दूसरा और तीसरा चरण एक है। पहले चरण में कर्म करने का अधिकार बताया गया है, तथा चौथे चरण में कर्म न करने में आसक्ति का निषेध किया गया है। दूसरे चरण में फल की इच्छा का निषेध किया गया है, तथा तीसरे चरण में फल की इच्छा का निषेध किया गया है।

तात्पर्य यह है कि अकर्म में रुचि रखने से तुम आलस्य, प्रमाद, कर्म और कर्मफल आदि तामसी वृत्ति से जुड़ जाओगे। कर्म और उसके फल से जुड़ने से तुम राजसी वृत्ति से जुड़ जाओगे। आलस्य, प्रमाद, कर्म और कर्मफल से न जुड़ने से तुम सात्विक वृत्ति से जुड़ जाओगे जो बुद्धि, प्रकाश और ज्ञान से मिलने वाला सुख है। इनसे जुड़ना ही जन्म और मृत्यु का कारण है। इसलिए साधक को इनमें से किसी भी कर्म, कर्मफल और इनके त्याग से मिलने वाले सुख से अपने को नहीं जोड़ना चाहिए और न ही इनमें राग या आसक्त होना चाहिए। कर्म करते हुए इनसे न जुड़ना ही कर्मयोग है।

इस श्लोक में कर्म करने की आज्ञा देने के बाद अब आगे भगवान कर्म करते हुए भी समान रहने की रीत बताते हैं।

FAQs

कर्मण्येवाधिकारस्ते का क्या मतलब है?

इसका अर्थ है – “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की इच्छा मत करो।” यह श्लोक गीता के अध्याय 2, श्लोक 47 में मिलता है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते: क्या फल की इच्छा छोड़ना ही मोक्ष है?

हाँ, जब कर्म में आसक्ति नहीं होती और फल की अपेक्षा नहीं रहती, तब वही कर्मयोग बन जाता है। यही मोक्ष का मार्ग है, जिससे जन्म-मृत्यु का चक्र टूटता है।

निष्काम भाव से कर्म कैसे करें?

निष्काम भाव लाने के लिए सेवा-भाव और प्रखर बुद्धि ज़रूरी है। दूसरों की भलाई को प्राथमिकता दें, फल की चिंता किए बिना कार्य करें।

कर्मफल की इच्छा त्यागने से क्या लाभ होता है?

इससे मन को शांति और संतुलन मिलता है। व्यक्ति कर्म में व्यस्त रहते हुए भी आत्मिक उन्नति करता है और अपने जीवन में सच्चा आनंद पाता है।

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