
Bhagavad gita Chapter 3 Verse 1 and 2
अर्जुन उवाच |
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव || 1 ||
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् || 2 ||
अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन! यदि आप बुद्धि (ज्ञान) को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं, तो हे केशव! आप मुझे युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों लगा रहे हो? आप अपनी मिश्रित वाणी से मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं। अतः आप दृढ़तापूर्वक एक बात कहिए, जिससे मेरा कल्याण हो।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 1 and 2 Meaning in hindi
र्जनार्दन
इस पद से अर्जुन यह भावना व्यक्त करते प्रतीत होते हैं कि हे भगवान कृष्ण तो सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले हैं, अतः आप मेरी भी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करेंगे।
अगर ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर घोर कर्म क्यों करें?
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव
मनुष्य के हृदय में एक दुर्बलता होती है कि वह प्रश्न पूछने के पश्चात उत्तर के रूप में भी वक्ता से अपने ही शब्दों या सिद्धांतों के लिए समर्थन चाहता है। यह दुर्बलता इसलिए कही गई है कि वक्ता की आज्ञाओं का पालन करने का निश्चय, चाहे वे मन के अनुकूल हों या पूर्णतया प्रतिकूल, पालन करने में ही वीरता है, शेष सब दुर्बलता या कायरता कहलाएगी। इसी दुर्बलता के कारण ही मनुष्य को विपत्ति सहन करने में कठिनाई का अनुभव होता है। जब वह विपत्ति सहन करने में असमर्थ हो जाता है, तो वह भलाई का मुखौटा पहन लेता है, अर्थात् तब भलाई के वेश में बुराई आ जाती है। भलाई के वेश में जो बुराई आती है, उसका त्याग करना बहुत कठिन होता है। यहाँ भी अर्जुन में हिंसा के त्याग की आड में बुराई भलाई के वेश में, कर्तव्य के त्याग की आड में आ गई है। इसलिए वह ज्ञान को कर्तव्य से श्रेष्ठ मान रहा है। इसी कारण वह यहाँ पूछता है कि यदि आप ज्ञान को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझे युद्ध जैसे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
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पहले अर्जुन के मन में युद्ध की लगन थी और उस लगन से भरकर उसने भगवान से कहा, ‘हे अच्युत! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करो। मैं देखूं कि कौन मेरे विरुद्ध हाथ उठाने वाला है?’ परंतु जब भगवान ने भीष्म, द्रोण और राजाओं के सामने दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करके कहा, ‘इन कुरुवंशियों को देखो’, तब अर्जुन का कुल-मोह जागृत हुआ। आसक्ति जागृत होने पर उसका दृष्टिकोण युद्ध और कर्म से हटकर ज्ञान की ओर हो गया, क्योंकि ज्ञान में युद्ध जैसे घोर कर्म नहीं करने पड़ते। इसलिए अर्जुन कहता है, आप मुझे ऐसे घोर कर्मों में क्यों लगाते हैं?
कोई भी साधक अपने प्रश्न का सही उत्तर श्रद्धापूर्वक पूछने पर ही प्राप्त कर सकता है। संदेह करके आरोप लगाने से सही उत्तर मिलना संभव नहीं है। अर्जुन को भगवान पर पूर्ण विश्वास है, इसलिए भगवान की आज्ञा से अर्जुन अपने कल्याण के लिए युद्ध जैसे जघन्यतम कर्म में भी प्रवृत्त हो सकता है – यह भावना उपरोक्त प्रश्न में प्रकट होती है।
जब मार्ग दो हों—ज्ञान या कर्म, क्या करें?
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे
इन पदों में अर्जुन का तात्पर्य यह है कि कभी तो आप कहते हैं – ‘कुरु कर्माणि’ (Ch. 2/48) और कभी कहते हैं कि मैं ज्ञान का आश्रय लेता हूँ – ‘वृद्धा शरणमन्विच्छ’ (Ch. 2/48)। आपके मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि मोहित हो रही है, अर्थात् मैं स्पष्ट रूप से समझ नहीं पा रहा हूँ कि मुझे कर्म करना चाहिए या ज्ञान का आश्रय लेना चाहिए।
ज्ञान या कर्म – कल्याण किससे संभव है?
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्
मेरा कल्याण कर्म से होगा या ज्ञान से – दोनों में से एक बात निश्चय करके मेरे लिए कहिए, जिससे मेरा कल्याण हो जाए। मैंने पहले भी कहा था कि जो बात निश्चित रूप से मेरा कल्याण करनेवाली हो, वही बात मेरे लिए कहिए – ‘पय:स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (Ch. 2/7) ओर अभी भी मैं वही बात कह रहा हूँ।
अगले तीन श्लोक में भगवान अर्जुन को व्यामिश्रेणेव वाक्येन पदों का उत्तर देते हैं।
FAQs
अगर ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर कर्म क्यों करें?
भगवद गीता के अनुसार, ज्ञान श्रेष्ठ है, लेकिन बिना कर्म के ज्ञान अधूरा है। अर्जुन की तरह आज भी हम सोचते हैं कि अगर ज्ञान हमें शांति देता है, तो फिर कठिन कर्म क्यों करें? श्रीकृष्ण समझाते हैं कि केवल ज्ञान से जीवन का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता — जब तक हम ज्ञान के अनुसार कर्म नहीं करते, तब तक आत्मोन्नति संभव नहीं। कर्म, ज्ञान को क्रिया में बदलता है और यहीं से सच्चा कल्याण शुरू होता है।
क्या सिर्फ ज्ञान से जीवन सफल हो सकता है?
नहीं, ज्ञान को कर्म में बदलना जरूरी है।
क्या कर्म करना आध्यात्मिकता में बाधा है?
नहीं, सही कर्म ही सच्ची आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग है।
कर्म और ज्ञान में संतुलन कैसे लाएं?
गीता सिखाती है — निष्काम भाव से कर्म करते हुए ज्ञान के मार्ग पर बढ़ना ही संतुलन है।