Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: |
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || 7 ||
अर्थात अर्जुन कहते हैं कायरता के दोष द्वारा दबा हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अंतरकरण वाला, में आपको पूछता हूं कि, जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याण कारक हो, वह मेरे लिए कहे! मैं आपका शिष्य हूं, आपके शरण आया हूं मुझे उपदेश दो।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 7 Meaning in hindi
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: –
यद्यपि अर्जुन अपने मन में यह विश्वास नहीं कर रहा था कि युद्ध को पूरी तरह से टालना ही सर्वोत्तम है, फिर भी, पाप से बचने के लिए उन्हें युद्ध छोड़ने के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं दिखा। इसलिए वे युद्ध से संन्यास लेना चाहते थे और संन्यास को एक गुण मानते थे, कायरता रूपी दोष नहीं। परंतु भगवान ने अर्जुन के संन्यास को कायरता तथा हृदय की क्षुद्र दुर्बलता कहा, अतः भगवान के उन अचूक वचनों से अर्जुन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि युद्ध से संन्यास लेना उसके लिए उचित नहीं है। यह एक प्रकार की कायरता है, जो मेरे स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि विनम्रता और युद्ध में भागना (पीठ दिखाना) दोनों ही मेरे क्षत्रिय स्वभाव से रहित हैं। इस प्रकार भगवान द्वारा बताए गए कायरता के दोष को स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान से कहते है कि, एक तो यह है कि कायरता के कारण क्षत्रिय स्वभाव एक प्रकार से दब गया है, और दूसरी बात यह है कि मैं अपनी बुद्धि से धर्म के विषय में कोई निर्णय नहीं कर सकता। मेरी बुद्धि इतनी जड़ हो गई है कि, मेरी बुद्धि धर्म के सम्बन्ध में कोई कार्य नहीं कर पा रही है।
तीसरे श्लोक में भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट आदेश दिया था कि, ‘मन की क्षुद्र दुर्बलता और कायरता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जाव।’ इससे अर्जुन के मन में धर्म (कर्तव्य) के विषय में कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए था। फिर भी संदेह का कारण यह है कि एक ओर तो युद्ध में कुलों का नाश करना तथा उपासकों का वध करना अधर्म प्रतीत होता है, तथा दूसरी ओर क्षत्रिय युद्ध करते समय धार्मिक प्रतीत होते हैं। इस प्रकार कुटुम्बियों को ध्यान में रखकर युद्ध नहीं करना चाहिए और क्षत्रिय धर्म को ध्यान में रखकर युद्ध करना चाहिए – इन दो बातों को लेकर अर्जुन धर्मसंकट में पड़ गये। धर्म के विषय में निर्णय लेने में उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई है। तो अब इस समय मेरा विशेष कर्तव्य क्या है? वे भगवान से पूछते हैं कि मेरा धर्म क्या है?
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे :-
इस अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा कि युद्ध से निवृत्त होने में जो तुम्हारी कायरता है, वह‘अनार्यजुष्ठ’ है, अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष उस प्रकार आचरण नहीं करते, वे तो केवल अपने कल्याण की इच्छा से ही आचरण करते हैं। यह सुनकर अर्जुन ने सोचा कि मुझे भी वही करना चाहिए जो श्रेष्ठ पुरुष करते हैं। इस प्रकार अर्जुन के मन में कल्याण की इच्छा जागृत हुई और इसी के चलते उसने भगवान से अपने कल्याण के बारे में पूछा और उनसे कुछ ऐसा बताने को कहा जिससे मेरा कल्याण सुनिश्चित हो सके।
अर्जुन के हृदय में जो उथल-पुथल (दुःख) है, तथा यहाँ उसका अपने कल्याण के विषय में प्रश्न करना, यह सिद्ध करता है कि यदि मनुष्य जिस अवस्था में है, उसी में संतुष्ट रहे, तो उसे अपने मूल उद्देश्य का भान नहीं होता। सच्चे वस्तुनिष्ठ कल्याण की जागरूकता तब होती है जब व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हो जाता है और उस स्थिति में नहीं रह सकता।
‘शिष्यस्थऽहम्’ :-
अपने कल्याण की बात पूछने से अर्जुन के मन में यह भावना उत्पन्न हुई कि कल्याण की बात तो गुरु से पूछी जाती है, सारथी से नहीं। इस बात को लेकर अर्जुन के मन में सारथि होने (जैसे योद्धा रथ पर बैठकर युद्ध करने वाला) की भावना थी और इसी कारण से वह भगवान को आज्ञा दे रहे थे कि, ‘हे अच्युत! ‘मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में रखो’, वह भावना नष्ट हो जाती है और अर्जुन भगवान को कल्याणता की बात पूछने के लिए उनका शिष्य बन जाता है। और वह कहता है, ‘महाराज! मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा के योग्य हूँ, कृपया मेरे कल्याण के विषय में बताइये।’
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शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (क्या भगवान से मार्गदर्शन मांगना ही सच्चा समर्पण है?) :-
गुरु अज्ञात मार्ग की शिक्षा देंगे, मार्ग का प्रकाश करेंगे, मार्गदर्शन करेंगे तथा सब कुछ समझाएंगे, लेकिन शिष्य को स्वयं ही उस मार्ग पर चलना होगा। शिष्य को अपने कल्याण का ध्यान स्वयं रखना होगा। मैं नहीं चाहता कि ईश्वर उपदेश दें और मैं उसका पालन करूं, क्योंकि यह मेरे लिए काम नहीं करेगा. यानि आपके अपने कल्याण के लिए! मैं इसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर क्यों डालूं? इसे गुरु पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाए? जिस प्रकार केवल माँ के दूध पर जीने वाला बच्चा बीमार हो जाता है, उसी प्रकार अपनी बीमारी को ठीक करने के लिए दवा बच्चे को नहीं, बल्कि माँ को ही लेनी पड़ती है। इसी प्रकार यदि मैं सब प्रकार से गुरु के शरणागत हो जाऊँ और गुरु पर आश्रित हो जाऊँ, तो मेरे कल्याण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व गुरु पर आ जाएगा और गुरु को ही मेरे कल्याण की व्यवस्था करनी पड़ेगी – ऐसी भावना से अर्जुन कहते है कि ‘मैं आपके शरणागत हो गया हूँ, मुझे शिक्षा दीजिए।’
यहाँ अर्जुन त्वां प्रपन्नम् शब्दों से भगवान के प्रति समर्पण की बात करते है, परंतु वास्तव में उन्होने पूर्णतः समर्पण नहीं किया है। यदि वे सब प्रकार से समर्पित हो गए होते, तो उनके लिए यह कहना संभव ही नहीं होता कि, “मुझे बताइए”, क्योंकि सब प्रकार से समर्पित हो जाने के बाद शिष्य का अपना कोई कर्तव्य नहीं रह जाता।
इस श्लोक में अर्जुन भगवान की शरण में जाता है, परंतु उसके मन में यह विचार आता है कि भगवान की इच्छा तो युद्ध करने की है, परंतु मैं अपने लिए युद्ध करना धर्मसंगत नहीं समझता। जैसे पहले उन्होंने ‘उत्तिष्ठ’ कहकर युद्ध का आदेश दिया था, वैसे ही अब भी वे युद्ध का आदेश देंगे। दूसरी बात, शायद मैं अपने हृदय की भावनाओं को परमेश्वर के सामने पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाया हूँ। इन बातोंके कारण अर्जुन अगले श्लोकमें युद्ध न करने के पक्षमें अपने हृदयकी स्थिति का स्पष्ट वर्णन करते है।
FAQs
अर्जुन को किस धर्मसंकट का सामना करना पड़ रहा था?
अर्जुन युद्ध और अहिंसा के बीच उलझ गए थे। एक ओर कुल और गुरुजनों का वध अधर्म लगता था, दूसरी ओर क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना आवश्यक था। इस द्वंद्व ने उन्हें मानसिक रूप से भ्रमित कर दिया।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण को “गुरु” कहकर क्यों संबोधित किया?
अर्जुन ने जब अपने कल्याण की बात उठाई, तब उन्हें महसूस हुआ कि अब भगवान केवल सारथि नहीं बल्कि गुरु हैं। इसलिए उन्होंने कहा – “मैं आपका शिष्य हूं, कृपया मुझे मार्ग दिखाइए।
अर्जुन ने मार्गदर्शन की मांग क्यों की?
अर्जुन को अपने कर्तव्य का स्पष्ट बोध नहीं हो पा रहा था। धर्म के विषय में उनकी बुद्धि भ्रमित हो चुकी थी। इसीलिए उन्होंने श्रीकृष्ण से निश्चित और कल्याणकारी मार्गदर्शन मांगा।
यह श्लोक आज के जीवन में कैसे प्रासंगिक है?
यह श्लोक दर्शाता है कि जब मनुष्य जीवन के किसी मोड़ पर भ्रमित होता है, तब उसे किसी सच्चे गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए और अपने अहंकार को त्यागकर शरणागत भाव अपनाना चाहिए।