
Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 36
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ॥३६॥
अर्थात भगवान अर्जुन को कहते हैं, यदि तुम सभी पापियों से भी अधिक पापी हों, तो भी आप ज्ञान की नाव से पाप सागर को आसानी से पार कर लेंगे।
shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 36 Meaning in Hindi
क्या ज्ञान से सभी पाप नष्ट हो सकते हैं?
–अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः
पापियों की तीन श्रेणियाँ हैं – (1) ‘पापकृत्’ अर्थात् पाप करने वाला, (2) ‘पापकृतर’ अर्थात् दोनों पापियों में से एक से अधिक पाप करने वाला, और (3) ‘पापकृत्तम’ अर्थात् सभी पापियों में सबसे अधिक पाप करने वाला। यहाँ ‘पापकृत्तमः’ शब्द का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि यदि तुम सभी पापियों में सबसे अधिक पापी भी हो, तो भी तत्वज्ञान के द्वारा तुम सभी पापों से मुक्त हो सकते हो।
भगवान का कथन अत्यंत आश्वस्त करने वाला है। तात्पर्य यह है कि जो लोग पापों का त्याग करके साधन में लगे हुए हैं, उनके विषय में तो क्या कहा जा सकता है, परन्तु जिन्होंने पूर्व में अनेक पाप किए हों, उन्हें भी ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् अपने मोक्ष के विषय में कभी निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि पापी से पापी व्यक्ति भी यदि चाहे, तो इसी जन्म में अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप वर्तमान के पापों जितने बाधक नहीं होते। यदि कोई व्यक्ति वर्तमान में पाप करना छोड़ दे और यह निश्चय कर ले कि अब कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञान प्राप्त करूँगा, तो उसके पापों के नाश में कोई विलम्ब नहीं होता।
यदि कोई स्थान सौ वर्षों से घोर अंधकार में डूबा हो और वहाँ दीपक जला दिया जाए, तो दीपक को उस अंधकार को दूर करके प्रकाश देने में सौ वर्ष नहीं लगते, बल्कि दीपक के जलते ही अंधकार तुरंत दूर हो जाता है। इसी प्रकार, तत्त्वज्ञान प्राप्त होते ही पूर्व में किए गए सभी पाप तुरंत नष्ट हो जाते हैं।
‘चेद’ (यदि) पद देने का तात्पर्य यह है कि अधिकांश पापी मनुष्य परमात्मा में लीन नहीं होते, किन्तु ऐसा नहीं है कि वे परमात्मा में लीन नहीं हो सकते। यदि किसी महापुरुष की संगति से अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदि के प्रभाव से वे इतना दृढ़ निश्चय कर लें कि अब उन्हें परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी पाप-सागर से भली-भाँति तर सकते हैं।
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क्या ज्ञानरूपी नौका से पाप-सागर को पार किया जा सकता है?
–सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि
सभी पाप शरीर और संसार के संबंध के कारण होते हैं। जब तत्वज्ञान प्राप्त कर मनुष्य उनसे पूर्णतः विरक्त हो जाता है, तो पाप कैसे शेष रह सकते हैं?
परमात्मा के आत्म-साक्षात्कारित ज्ञान से एकाकार हो जाना ‘ज्ञानप्लव’ कहलाता है, अर्थात् ज्ञानरूपी नौका प्राप्त करना। मनुष्य चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, ज्ञानरूपी नौका द्वारा वह पापरूपी समस्त सागर को भली-भाँति पार कर सकता है। यह ज्ञानरूपी नौका कभी टूटती नहीं, इसमें कभी छेद नहीं होता और यह कभी डूबती नहीं। यह व्यक्ति को पापरूपी सागर से पार कराती है।
“ज्ञानयज्ञ” से यह ज्ञानरूपी नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ ‘विवेक’ से प्रारंभ होकर ‘तत्त्वज्ञान’ पर समाप्त होता है। जब यह समाप्त होता है, तो पाप का लेशमात्र भी शेष नहीं रहता।
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