क्या यज्ञ दान और तप से बढ़कर ज्ञान पवित्र है?

क्या यज्ञ दान और तप से बढ़कर ज्ञान पवित्र है?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । 
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥

अर्थात भगवान कहते हैं, इस मानव जगत में ज्ञान के समान शुद्धि का कोई अन्य साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो चुका है (कर्मयोगी) वह अपने भीतर स्थित उस तत्व का ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लेता है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 38 Meaning in Hindi

क्या यज्ञ दान और तप से बढ़कर ज्ञान पवित्र है?

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते

यहाँ इह पद मानव-लोक के लिए है, क्योंकि समस्त पवित्रता इसी मानव-लोक में प्राप्त होती है। पवित्रता प्राप्त करने का अधिकार और अवसर केवल मानव-देह में ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य देह में नहीं है। विभिन्न लोकों के अधिकार भी मानव-लोक में ही प्राप्त होते हैं।

संसार की स्वतंत्र सत्ता मानने और उसके माध्यम से सुख भोगने की इच्छा से ही समस्त दोष और पाप उत्पन्न होते हैं। सत्य के साक्षात्कार के पश्चात् जब संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती, तब समस्त पाप पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं और महान पवित्रता आ जाती है। इसीलिए संसार में ज्ञान के समान शुद्धि का कोई दूसरा साधन नहीं है।

संसार में यज्ञ, दान, तप, पूजा, व्रत, उपवास, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि अनेक साधन हैं और गंगा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक तीर्थ हैं, जो मनुष्य के पापों का नाश करके उसे पवित्र करते हैं। किन्तु उन सबमें तत्वज्ञान के समान पवित्र करने वाला कोई साधन, तीर्थ आदि नहीं है, क्योंकि वे सब तत्वज्ञान के साधन हैं और तत्वज्ञान ही उन सबका साध्य है।

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क्या केवल सेवा से योगसंसिद्धि संभव है?

योगसंसिद्धः

जिस महापुरुष का कर्मयोग सिद्ध हो गया है, अर्थात् कर्मयोग का अभ्यास पूरा हो गया है, उसे यहाँ ‘योगसंसिद्धः’ कहा गया है।

कर्मयोग का मुख्य बिंदु है, संसार के हित के लिए सभी कर्म करना, किसी भी चीज़ को अपना न मानना और अपने लिए कुछ भी न करना। ऐसा करने से, पदार्थ और क्रिया की शक्ति दोनों संसार की सेवा में प्रवाहित होती हैं। जब प्रवाह संसार की सेवा में होता है, तो ‘मैं सेवक हूँ’ का भाव नहीं रहता, अर्थात सेवक नहीं रहता, केवल सेवा ही रह जाती है। इस प्रकार, जब सेवक सेवक बनकर सेवा में लीन हो जाता है, तब प्रकृति और संसार के कार्य करने वाले शरीर से पूर्ण अलगाव (वियोग) हो जाता है। अलगाव होने पर, संसार की स्वतंत्र शक्ति नहीं रहती, केवल कर्म ही रह जाता है। इसे ही योग की संसिद्धि, अर्थात सम्यक् सिद्धि कहते हैं।

क्या कर्मयोगी स्वयं तत्वज्ञान प्राप्त कर सकता है?

तत्स्वयं कालेनात्मनि विन्दति

जो तत्वज्ञान से सारे कर्म भस्म हो जाते हैं और जिनके समान पवित्र करने वाला संसार में दूसरा कोई साधन नहीं, इस तत्व ज्ञान को कर्मयोगी योग संसिद्ध होते ही दूसरे कोई साधन के बिना अपने आप खुद में ही तत्काल प्राप्त कर लेते हैं।

स्वयम् पद देने का तात्पर्य यह है कि कर्मयोगी तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी गुरु, शास्त्र या अन्य किसी साधन की अपेक्षा नहीं करता। वह कर्मयोग की विधि के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्वयं ही तत्वज्ञान प्राप्त कर लेता है।

अब भगवान अगले श्लोक में ज्ञान प्राप्ति के पत्र का निरूपण करते हैं।

FAQs

भगवद गीता में कितने अध्याय और श्लोक हैं?

गीता में 18 अध्याय और लगभग 700 श्लोक हैं।

गीता के अनुसार सच्चा भक्त कौन है?

जो समभाव से सबको देखता है, ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखता है और निःस्वार्थ भाव से भक्ति करता है, वही सच्चा भक्त है।

भगवद गीता में कर्मयोग का क्या महत्व है?

गीता में कर्मयोग को सर्वोत्तम साधन माना गया है, जिसमें निःस्वार्थ भाव से कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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