गीता के अनुसार संशयी व्यक्ति का क्या होता है?

गीता के अनुसार संशयी व्यक्ति का क्या होता है?

Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 40

अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति । 
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४०॥

अर्थात भगवान कहते हैं, जो व्यक्ति ज्ञान और श्रद्धा से रहित है, वह असफलता को प्राप्त होता है। ऐसे श्रद्धाहीन व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है, न परलोक, और न ही सुख।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4 Verse 40 Meaning in hindi

गीता के अनुसार संशयी व्यक्ति का क्या होता है?

अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति

जिस व्यक्ति का विवेक अभी जागृत नहीं हुआ है और जो जागृत विवेक को महत्व नहीं देता तथा जो नास्तिक भी है, ऐसा संशयी व्यक्ति पारलौकिकता के मार्ग से च्युत हो जाता है। क्योंकि संशयी व्यक्ति की बुद्धि स्वभावतः अनुशासनहीन होती है और दूसरों की बातों का सम्मान नहीं करती, तो ऐसे व्यक्ति के संशय का नाश कैसे हो सकता है? और संशय के नाश के बिना उसकी उन्नति कैसे हो सकती है?

साधक का गुण है खोज करना। यदि वह केवल मन और इंद्रियों से जो देखता है उसे ही सत्य मान लेता है, तो वह वहीं रुक जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता। साधक को निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जिस प्रकार एक व्यक्ति सड़क पर चलते हुए यह नहीं देखता कि वह कितने मील आ गया, बल्कि यहदेखता है कि अभी कितने मील बाकी हैं, तभी वह अपने गंतव्य तक पहुँच पाएगा। उसी प्रकार एक साधक केवल यह देखता है कि उसने कितना सीखा है, अर्थात् जो आप जानते हैं, उससे संतुष्ट न हों, बल्कि जिस विषय को आप अच्छी तरह नहीं जानते, उसे जानने का प्रयास करते रहें। इसलिए, संदेह होने पर भी कभी संतुष्ट न हों, बल्कि आपकी जिज्ञासा अग्नि की तरह भड़कती रहे।वह जलती रहे। इस प्रकार साधक का संदेह किसी न किसी प्रकार संत-महात्माओं या शास्त्रों के माध्यम से दूर हो जाता है। यदि संदेह दूर करने वाला कोई न मिले, तो ईश्वर की कृपा से संदेह दूर हो जाता है।

कर्मयोग और ज्ञानयोग में संशय दूर करना क्यों है आवश्यक?

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः

यह श्लोक उस व्यक्ति का वर्णन करता है जो अज्ञानी और अविश्वासी है। तात्पर्य यह है कि उसके हृदय में संशय तो है, परन्तु न तो उसकी अपनी विवेक बुद्धि है और न ही वह दूसरों की बातों पर विश्वास करता है। इसीलिए वह संशयी व्यक्ति पतन की ओर अग्रसर होता है। उसके लिए न तो यह लोक है, न परलोक, और न ही सुख।

इस संसार में संशयी व्यक्ति का आचरण बिगड़ जाता है। क्योंकि वह प्रत्येक विषय में संशय करता है, जैसे— यह व्यक्ति अच्छा है या बुरा? यह भोजन अच्छा है या बुरा? यह मेरे लिए अच्छा है या नहीं? इत्यादि। उस संशयी व्यक्ति का परलोक में भी कल्याण नहीं होता, क्योंकि कल्याण के लिए दृढ़ बुद्धि की आवश्यकता होती है और संशयी व्यक्ति द्वैत की स्थिति में होने के कारण कोई निश्चय नहीं कर सकता, जैसे— मुझे योद्धा बनना चाहिए या विद्यार्जन करना चाहिए? मुझे संसार के लिए कार्य करना चाहिए या परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए? इत्यादि। भीतर बने रहने वाले संशय के कारण उसके मन में सुख या शांति नहीं रहती। इसीलिए विवेक बुद्धि द्वारा संशय को दूर करना चाहिए।

भगवान ने तैंतीसवें श्लोक से ज्ञानयोग का विषय आरंभ किया और ज्ञान प्राप्ति के साधन तथा ज्ञान की महिमा बताई। गुरु के पास रहकर उनकी सेवा आदि करने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वही ज्ञान कर्मयोग से युक्त व्यक्ति को भी प्राप्त होता है – ऐसा दर्शाते हुए भगवान ने ज्ञान प्राप्ति के पात्र और अपात्र का वर्णन करके विषय का समापन किया।

अब प्रश्न उठता है कि कर्मयोगी को सिद्धि प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए? इसका उत्तर भगवान अगले श्लोक में देते हैं।

यह भी पढ़े :

श्रद्धा और संयम से कैसे मिलती है परम शांति?

क्या यज्ञ दान और तप से बढ़कर ज्ञान पवित्र है?

क्या ज्ञानरूपी अग्नि सभी पाप और कर्मों को जला सकती है?

क्या ज्ञान से सभी पाप नष्ट हो सकते हैं?

Scroll to Top