क्या मृत्यु केवल पुराने वस्त्र बदलने जैसा ही एक परिवर्तन है?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 22

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही || 22 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, मनुष्य जिस तरह पुराने वस्त्र त्याग कर दूसरे नए वस्त्र धारण कर लेते हैं, वैसे ही यह देही पुराने शरीर को त्याग करके दूसरे नए शरीर में चला जाता है।

क्या मृत्यु केवल पुराने वस्त्र बदलने जैसा ही एक परिवर्तन है?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 22 Meaning in hindi

क्या मृत्यु केवल पुराने वस्त्र बदलने जैसा ही एक परिवर्तन है?

इसी अध्याय के 13 वे श्लोक में सूत्र के रूप में कहने में आया था कि, देहांतर की प्राप्ति के बाबत में धीर पुरुष शौक नहीं करते, अब इसी बाबत को उदाहरण देकर स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि, जिस तरह पुराने कपड़ों के परिवर्तन के कारण मनुष्य शोक नहीं करता, वैसे ही शरीरों के परिवर्तन के कारण भी शौक नहीं होना चाहिए।

वस्त्रों मनुष्य ही बदलता है, पशु पक्षी नहीं इसीलिए यहां कपड़े बदलने के उदाहरण में नर: पद दिया है, यह नर: पद मनुष्य योनि का वाचके है, उसमें स्त्री पुरुष, युवान वृद्ध वगैरह सब आ जाते हैं।

जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह शरीर भी पुराने शरीर त्यागकर नये शरीर धारण करता है। पुराने शरीर को छोड़ना ‘मृत्यु’ कहलाता है, और नया शरीर धारण करना ‘जन्म’ कहलाता है। जब तक प्रकृति से सम्बन्ध बना रहता है, तब तक यह शरीर कर्मानुसार या परलोक चिंतन के अनुसार पुराने शरीरों को त्यागकर नये शरीर धारण करता रहता है।

यहाँ श्लोक के प्रथम भाग में पुराने कपड़ों की कहानी कही गयी है, तथा दूसरे भाग में पुराने शरीर की कहानी कही गयी है। पुराने कपड़ों का उदाहरण शरीर पर कैसे लागू किया जा सकता है? क्योंकि बच्चों और जवान के शरीर भी मरते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल वृद्ध लोगों के क्षीण शरीर ही मरते हैं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तभी मरता है जब उसका जीवनकाल समाप्त हो जाता है, और जीवनकाल का अंत ही शरीर का क्षय है। “चाहे शरीर बच्चे का हो, जवान का हो या बूढ़े का, जीवन के अंत में यह सब क्षय ही कहलाएगा!

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इस श्लोक में भगवान ने ‘यथा’ और ‘तथा’ उपसर्ग देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही यह शरीर भी पुराने शरीरों को त्यागकर नये शरीरों में प्रवेश करता है। यहाँ एक संदेह उत्पन्न होता है। जिस प्रकार बचपन, जवानी और बुढ़ापे की अवस्थाएं स्वतः ही घटित होती हैं, उसी प्रकार परलोक की प्राप्ति भी स्वतः ही होती है।

यहाँ, “यथा” (जैसे) और ‘तथा‘ (उस तरह से) जुड़े हुए हैं, परन्तु (इस श्लोक में) मनुष्य को पुराने वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र धारण करने की स्वतंत्रता है, परन्तु शरीर को पुराने शरीर त्यागकर नये शरीर धारण करने की स्वतंत्रता नहीं है। इस कारण, यथा और ‘तथा’ शब्द यहां कैसे फिट होंगे? समाधान यह है कि यहां पर भगवान का इरादा मुक्ति की बात करना नहीं है, बल्कि शरीर के वियोग से होने वाले दुःख को दूर करना है। जैसे पुराने वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र धारण करने पर भी पहनने वाला वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीर त्यागकर नये शरीर में प्रवेश करने पर भी शरीर वैसा ही, पृथक् बना रहता है, इसलिए शोक करने की कोई बात नहीं है। इस अर्थ में यह उदाहरण सही है।

एक और संदेह यह उठता है कि पुराने कपड़ों को त्याग करके और जहाँ नये कपड़े पहनने में खुशी होती है, वहीं पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को धारण करने में पीड़ा होती है। तो फिर यहाँ ”यथा” और ‘तथा‘ एक साथ कैसे फिट होते हैं? इसका समाधान शरीर/मृत्यु का दुःख है। यह मरने से नहीं, बल्कि जीने की इच्छा से होता है। ‘मैं जीना चाहता हूँ’ – इस तरह जीने की इच्छा भीतर रहती है, और जब किसी को मरना पड़ता है, तो उसे पीड़ा होती है। तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य शरीर के साथ एक हो जाता है, तो वह शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु मान लेता है और दुखी हो जाता है। लेकिन जो व्यक्ति शरीर के साथ अपनी एकता में विश्वास नहीं करता, उसे मरने का दर्द महसूस नहीं होता, इसके विपरीत, उसे खुशी महसूस होती है! जिस प्रकार मनुष्य अपनी पहचान कपड़ों से नहीं मानता, उसी प्रकार वस्त्र भी अपनी पहचान मानते हैं। बदलाव से कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि वहाँ यह है, विवेक को यह बात स्पष्ट रूप से पता है कि कपड़े अलग-अलग हैं और मैं अलग हूं। लेकिन अगर छोटे बच्चे के लिए वही कपड़े बदले जाएं तो वह पुराने कपड़े उतारकर नए कपड़े पहनते समय भी रोता है। यह दुःख केवल मूर्खता और नासमझी के कारण है। इस मूर्खता को नष्ट करने के लिए ही भगवान ने यहां वस्त्र का उदाहरण देते हुए “यथा” और “तथा” का दृष्टांत दिया है।

FAQs

यह श्लोक आत्मा और शरीर के संबंध में क्या समझाता है?

यह श्लोक बताता है कि आत्मा अमर है और केवल शरीर बदलता है। जैसे हम कपड़े बदलते हैं, वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है – इससे दुखी नहीं होना चाहिए।

आधुनिक दौर में ‘नर:’ शब्द का क्या संकेत है?

‘नर:’ यानी विवेकशील मनुष्य – यह हमें बताता है कि बदलते समय के साथ बदलना मनुष्य की विशेषता है। बुद्धिमान व्यक्ति ही बदलाव को स्वीकार कर आगे बढ़ता है।

भगवद गीता श्लोक 2.22 का आज के जीवन में क्या महत्व है?

आज के समय में जब लोग रिश्तों, करियर या पहचान बदलने से डरते हैं, यह श्लोक सिखाता है कि जैसे पुराने कपड़े छोड़कर नए पहनना स्वाभाविक है, वैसे ही जीवन में बदलाव भी स्वाभाविक हैं – इनसे घबराना नहीं चाहिए।

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