
Bhagavad gita Chapter 2 Verse 55
श्रीभगवानुवाच |
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || 55 ||
अर्थात श्री भगवान बोले, है पृथा नंदन जीस समय साधक मन में रही हुई सारी कामनाओं को अच्छे से त्याग कर देता है और खुद खुद से ही अपने आप में संतुष्ट रहता है, उस समय वह स्थिर बुद्धि वाला कहलाता है।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 55 Meaning in hindi
क्या इच्छाएँ सच में हमारी अपनी होती हैं?
-प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्
इन पदों का अर्थ है कि इच्छा न तो स्वयं में है, न ही मन में! इच्छा तो आने-जाने वाली वस्तु है और स्वयं स्थायी है, अतः इच्छा स्वयं में कैसे हो सकती है? मन कारण है और उसमें भी इच्छा स्थायी नहीं रहती, बल्कि वह ‘मनोगतान्’ में आती है, अतः इच्छा मन में भी कैसे हो सकती है? परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के कारण मनुष्य मन में आने वाली इच्छाओं को अपने में मान लेता है।
जहाति क्रिया के साथ ‘प्र’ उपसर्ग लगाने का अर्थ है कि साधक इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी इच्छा का किंचित मात्र भी अंश शेष नहीं रहता।
अपने स्वरूप का त्याग कभी नहीं करता और जिसका सम्बन्ध नहीं है उसका त्याग नहीं करता। त्याग उसका होता है जो अपना नहीं है, फिर भी उसे अपना मान लिया है। इसी प्रकार इच्छाएँ हमारे अन्दर नहीं हैं, परन्तु हमारे अन्दर मानी गई हैं। इस मान्यता का त्याग यहाँ ‘प्रजहाति’ शब्द से कहा गया है।
क्या सच्चा संतोष हमारे भीतर ही छिपा है?
–आत्मन्येवात्मना तुष्ट:
उस समय मनुष्य सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है और स्वयं में संतुष्ट रहता है, अर्थात वह स्वयं में स्वाभाविक रूप से संतुष्ट हो जाता है।
संतोष दो प्रकार का होता है – एक संतोष का गुण और दूसरा संतोष का स्वरूप। मन में किसी भी प्रकार की इच्छा न होना – यह संतोष का गुण है और स्वयं में असंतोष का सर्वथा अभाव – यह संतोष का स्वरूप है।
यह संतोष का स्वरूप स्वतः ही सदैव बना रहता है। इसके लिए कोई अध्ययन या विचार नहीं करना पड़ता। संतोष के स्वरूप में बुद्धि स्वतः ही स्थिर रहती है।
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बुद्धि स्थिर कैसे होती है?
-स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते
जब वह अपने अन्दर अनेक शाखाओं वाली अनंत इच्छाओं को मानता था, उस समय भी वास्तव में इच्छाएँ उसके अन्दर नहीं थीं और वह स्थितप्रज्ञ था। लेकिन उस समय अपने अन्दर इच्छाओं को मानने के कारण उसकी बुद्धि स्थिर न होने के कारण वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहलाया, अर्थात् उसे अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव नहीं हुआ। अब जब उसने अपने अन्दर से सभी इच्छाओं का त्याग कर दिया, अर्थात् उनकी मान्यताओं को हटा दिया, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है, अर्थात् उसे अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव होता है। साधक बुद्धि को स्थिर बनाता है। लेकिन जब इच्छाओं का पूर्ण त्याग हो जाता है, तो बुद्धि को स्थिर नहीं बनाना पड़ता, वह अपने आप स्वाभाविक रूप से स्थिर हो जाती है।
अब अगले श्लोक में स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है? इस प्रश्न का उतर देते है।
FAQs
क्या इच्छाओं का त्याग ही स्थिर बुद्धि की पहचान है?
हाँ, श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जब मनुष्य सभी मानसिक इच्छाओं का पूर्ण त्याग कर स्वयं में संतुष्ट रहता है, तभी वह स्थिर बुद्धि (स्थितप्रज्ञ) कहलाता है। इच्छाएँ स्वभाव से क्षणिक हैं, लेकिन आत्मा शाश्वत है। गीता श्लोक 2.55 के अनुसार, इच्छाओं की मान्यता का त्याग कर ही आत्मिक संतोष और स्थिरता पाई जा सकती है — यही आज के तनावपूर्ण जीवन में मानसिक शांति का मार्ग है।
क्या इच्छाओं का त्याग किए बिना सच्ची मानसिक शांति संभव है?
गीता के अनुसार, जब तक मन इच्छाओं के वश में है, तब तक शांति अस्थायी रहती है। इच्छाओं का त्याग करके ही मन स्थिर होता है और आत्मिक शांति प्राप्त होती है।
क्या स्थिर बुद्धि का मतलब भावनाहीन या निष्क्रिय होना है?
नहीं, स्थिर बुद्धि का अर्थ है विवेकपूर्ण निर्णय क्षमता, भावनाओं पर नियंत्रण और आत्मिक स्थिरता। यह निष्क्रियता नहीं, बल्कि जागरूक और शांत जीवन जीने की योग्यता है।
इच्छाओं को पूरी तरह त्यागना क्या वास्तव में संभव है?
पूर्ण त्याग का अर्थ यह नहीं कि जीवन में कुछ न चाहें, बल्कि यह समझना है कि इच्छाएँ हमारे भीतर स्थायी नहीं हैं। जब हम उन्हें ‘मैं’ नहीं मानते, तब स्वतः ही उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है – यही “प्रजहाति कामान” का सार है।