Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 45
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || 45 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, वेदों में तीनों गुणों के कार्य का ही वर्णन है, हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से मुक्त हो जा, अनासक्त हो जा, नित्य सनातन में स्थित हो जा, योग के सुखों की भी इच्छा न कर तथा परब्रह्म में परायण हो जा।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 45 Meaning in hindi
त्रैगुण्यविषया वेदा
यहाँ वेदों का तात्पर्य वेदों के उस भाग से है, जिसमें तीनों गुणों तथा तीनों गुणों के कार्यों, स्वर्ग आदि सुखों के धामों का वर्णन है। यहाँ उपर्युक्त श्लोकों का तात्पर्य वेदों की निन्दा करना नहीं, बल्कि निष्काम भाव की महिमा करना है। जैसे हीरे के वर्णन के साथ जब काँच का वर्णन किया जाता है, तो उसका तात्पर्य काँच की निन्दा करना नहीं, बल्कि हीरे की महिमा बताना है। इसी प्रकार यहाँ वेदों का वर्णन निष्काम भाव की महिमा बताने के लिए ही किया गया है, न कि उसकी निन्दा करने के लिए। ऐसा नहीं है कि वेदों में केवल तीनों गुणों तथा संसार के कार्यों का वर्णन है। वेदों में परमात्मा तथा उनकी प्राप्ति के साधनों का भी वर्णन है।
निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
हे अर्जुन! संसार की इच्छा को, जो तीनों गुणों का कार्य है, त्याग दो और असंसारी हो जाओ, अर्थात् संसार से परे हो जाओ।
निर्द्वन्द्वो
संसार से ऊपर होने के लिए राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से मुक्त होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि ये ही वास्तव में मनुष्य के शत्रु हैं अर्थात् उसे संसार में फँसाने वाले हैं। अतः तू सम्पूर्ण द्वन्द्वों से मुक्त हो जा।
भगवान अर्जुन को विरक्त होने का आदेश क्यों दे रहे हैं? क्योंकि द्वैतभाव से संसार में मोह और उलझन पैदा होती है। जब साधक विरक्त हो जाता है, तभी वह स्थिरचित्त होकर भजन कर सकता है। विरक्त होने से साधक सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है । विरक्त होने से अज्ञान मिट जाता है। विरक्त होने से साधक कर्म करते हुए भी बंधता नहीं। तात्पर्य यह है कि विरक्त होने से ही साधक की साधना स्थिर होती है। इसी कारण भगवान अर्जुन को विरक्त होने का आदेश देते हैं।
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नित्यसत्त्वस्थो
द्वंद्वों से मुक्त होने का उपाय है, शाश्वत, सर्वव्यापी और पूर्ण परमात्मा में निरन्तर स्थित रहना।
निर्योगक्षेम
तुम योग और क्षेम की इच्छा भी ना रखो, क्योंकि जो केवल मेरे में परायण बनते है, उनका योगक्षेम का वहन में खुद करता हूं।
आत्मवान्
तुम केवल परमात्मा के परायण हो जाओ एक परमात्मा प्राप्ति का ही लक्ष्य रखो।
तीनों गुणों से रहित निर्द्वन्द्वो बिगेरे बन जाने से क्या होगा?? इसका वर्णन अगले श्लोक में समझते हैं।
FAQs
भगवद्गीता में विरक्त जीवन का महत्व क्या है?
भगवद्गीता में विरक्त जीवन को इसलिए महत्व दिया गया है क्योंकि यह साधक को मोह और उलझनों से मुक्त करता है, जिससे उसका मन स्थिर और शांत रहता है। इससे साधना में सफलता और आत्म-साक्षात्कार संभव हो जाता है।
तीनों गुणों से मुक्त होना क्यों जरूरी है?
तीनों गुणों (सत, रज, तम) से मुक्त होकर ही साधक अनासक्त और आत्मवान बनता है। इससे वह संसार के मोह और द्वन्द्वों से बचकर परमात्मा में स्थित हो सकता है।
‘निर्द्वन्द्वो’ का अर्थ क्या है और इसका जीवन में महत्व क्या है?
‘निर्द्वन्द्वो’ का अर्थ है राग-द्वेष से मुक्त होना। जीवन में इससे मन की शांति बनी रहती है और हम दूसरों के प्रति बैरभाव और द्वेष को त्यागकर सच्चे सुख का अनुभव कर पाते हैं।
आज की लाइफ में विरक्ति को कैसे अपनाएं?
आज के जीवन में विरक्ति का मतलब है – ज़रूरतों से परे होकर, संतुलित दृष्टिकोण रखना। इच्छाओं को सीमित करके, आत्म-निर्भर और सकारात्मक सोच को अपनाकर हम विरक्त जीवन जी सकते हैं।