इंद्रियों को वश में करने का सही तरीका क्या है? गीता का दृष्टिकोण!

इंद्रियों को वश में करने का सही तरीका क्या है? गीता का दृष्टिकोण!इंद्रियों को वश में करने का सही तरीका क्या है? गीता का दृष्टिकोण!

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: |
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || 61 ||

अर्थात भगवान कहते हैं कर्मयोगी साधकों को सारी इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण होना चाहिए, क्योंकि जिनकी इंद्रियां वश में है, उनकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 61 Meaning in hindi

भगवान के प्रति समर्पण क्यों आवश्यक है आत्मविकास के लिए?

मन को बलपूर्वक हरने वाली समस्त इन्द्रियों को वश में करके अर्थात् सावधान रहकर तथा उन्हें कभी विषयों में विचलित न होने देकर मनुष्य को मेरे प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। फलस्वरूप जब साधक इन्द्रियों को वश में कर लेता है, तब उसे अपने बल का अभिमान हो जाता है कि मैंने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है। यह अभिमान साधक को ऊपर उठने नहीं देता तथा उसे भगवान से विमुख कर देता है। अतः साधक को कभी भी इन्द्रियों को वश में करने के अपने बल का अभिमान नहीं करना चाहिए, न ही अपने प्रयत्नों को इसका कारण मानना चाहिए, अपितु केवल भगवान की कृपा को ही इसका कारण मानना चाहिए कि इन्द्रियों को वश में करने में मुझे जो सफलता मिली है, वह भगवान की कृपा से ही है। इस प्रकार केवल भगवान के प्रति समर्पित हो जाने से ही उसके साधन सिद्ध हो जाते हैं।

यहाँ ‘मत्पर‘ कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य शरीर पाना, साधनों में रुचि लेना, साधनों से जुड़ना, साधनों को प्राप्त करना – ये सब भगवान की कृपा पर निर्भर हैं। लेकिन अभिमान के कारण मनुष्य का ध्यान उस ओर कम जाता है। कर्मयोगी में मुख्य ध्यान कर्म करने पर होता है और वह उसे अपना ही पुरुषार्थ मानता है। इसलिए भगवान कर्मयोगी साधक को विशेष कृपा करके अपने परायण होने को कह रहे हैं।

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भगवान के आश्रित होने का तात्पर्य यह है कि महत्व बुद्धि भगवान में ही हो की, “भगवान मेरे हैं और मैं भगवान का हूँ, संसार मेरा नहीं है और मैं संसार का नहीं हूँ।” क्योंकि भगवान सदैव मेरे साथ रहते हैं, संसार मेरे साथ नहीं रहता। इस प्रकार साधक का ‘मैं’ पना भगवान में ही आसक्त रहे।

वश में इंद्रियाँ या शांत चेतना – कौन ज़रूरी है पहले?

प्रथम उनसठवें श्लोक में भगवान् ने कहा है कि विषयों से इन्द्रियाँ पृथक् होने पर भी उनमें निश्चल चेतना नहीं रहती है और इस श्लोक में कहा है कि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, वह निश्चल चेतना है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (Ch 2/59 में) विषयों से इन्द्रियाँ पृथक् होने पर भी कामना भीतर रहती है, इसलिए इन्द्रियाँ वश में नहीं रहतीं। परन्तु यहाँ निश्चल चेतना वाले पुरुष की इन्द्रियाँ वश में हैं और उसकी कामना समाप्त हो गई है। इसलिए यह नियम नहीं है कि विषयों से इन्द्रियाँ पृथक् होने पर वह निश्चल चेतना हो जाएगा, क्योंकि कामना तो उसमें रह सकती है। परन्तु यह नियम है कि निश्चल चेतना होने पर इन्द्रियाँ वश में हो जाएँगी।

भगवान के परायण होने से इंद्रियां वश में होकर रस बुद्धि निवृत हो जाएगी, परंतु भगवान के परायण नहीं होने से क्या होगा? इसके विषय में हम अगले दो श्लोक में देखेंगे।

FAQs

क्या केवल संयम से इंद्रियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है?

नहीं, गीता के अनुसार केवल संयम पर्याप्त नहीं है। भगवान की कृपा और समर्पण भी आवश्यक है।

आज के जीवन में इंद्रियों पर नियंत्रण क्यों ज़रूरी है?

क्योंकि मोबाइल, सोशल मीडिया, विज्ञापन और भोग की चीज़ें हर पल मन को विचलित करती हैं। स्थिरता के लिए संयम ज़रूरी है।

क्या भगवान में श्रद्धा रखने से वास्तव में मन शांत होता है?

हाँ, गीता के अनुसार भगवान के प्रति समर्पण करने से मन और इंद्रियाँ स्वतः नियंत्रित हो जाती हैं।

साधक को इंद्रियों पर नियंत्रण के बाद अभिमान क्यों नहीं करना चाहिए?

क्योंकि यह सफलता साधक के पुरुषार्थ से नहीं, बल्कि भगवान की कृपा से मिलती है। अभिमान साधक को गिरा सकता है।

इंद्रियों को वश में करने का सही तरीका क्या है? गीता का दृष्टिकोण!

इंद्रियों को वश में करने का सही तरीका गीता के अनुसार संयम के साथ भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण है। केवल प्रयास से नहीं, बल्कि अहंकार त्यागकर, भगवान की कृपा को ही सफलता का कारण मानते हुए ही स्थिर बुद्धि और सच्चा नियंत्रण प्राप्त होता है।

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