
Bhagavad gita Chapter 2 Verse 62 63
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते || 62 ||
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || 63 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, जो व्यक्ति वस्तुओं का चिंतन करता है, वह उन वस्तुओं के प्रति आसक्ति विकसित करता है। आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है। इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। मोह के कारण स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति के नाश से बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि के नाश से व्यक्ति का पतन होता है।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 62 63 Meaning in hindi
मन बार-बार भटकता क्यों है? गीता के श्लोक से जानें समाधान
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूप जायते
भगवान के परायण न होने से, भगवान का चिंतन न करने से मनुष्य केवल विषयों का ही चिंतन करता है। क्योंकि आत्मा के एक तरफ़ परमात्मा है और दूसरी ओर संसार है। जब मनुष्य परमात्मा का आश्रय छोड़ देता है, तो वह संसार का आश्रय लेता है और संसार का ही चिंतन करता है, क्योंकि संसार के अतिरिक्त चिंतन का कोई दूसरा विषय नहीं है। इस प्रकार चिंतन करने से मनुष्य में उन विषयों के प्रति आसक्ति, राग और प्रेम उत्पन्न होता है। राग उत्पन्न होने के कारण ही मनुष्य उन विषयों का उपभोग करता है। विषयों का उपभोग चाहे मानसिक हो या शारीरिक, उससे जो सुख मिलता है, उससे विषयों में प्रीति उत्पन्न होती है। प्रीति के कारण ही मनुष्य उन विषयों का बार-बार चिंतन करने लगता है। अब चाहे कोई विषय का उपभोग करे या न करे, परंतु विषयों में राग उत्पन्न होता ही है – यह नियम है।
सङ्गात्सञ्जायते काम:
विषय में राग उत्पन्न होने से उन विषयों को प्राप्त करने की कामना उत्पन्न हो जाती हैं कि, वह भोग, वस्तु मुझे मिले।
क्या हमारे क्रोध का कारण हमारी इच्छाएँ हैं?
कामात्क्रोधोऽभिजायते
बिना सहमति के विषयों की निरन्तर प्राप्ति से ‘लोभ’ उत्पन्न होता है, और यदि कामना की पूर्ति की संभावना हो, किन्तु कोई उसमें बाधा डालता है, तो उस पर ‘क्रोध’ उत्पन्न होता है।
यदि कहीं भी, किसी भी बात के कारण क्रोध उत्पन्न होता है, तो उसके मूल में किसी प्रकार का राग अवश्य होगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी को नैतिकता के विरुद्ध कार्य करते देखकर क्रोध उत्पन्न होता है, तो नैतिकता के प्रति राग होगा। यदि किसी को किसी का अपमान करते या तिरस्कार करते देखकर क्रोध उत्पन्न होता है, तो दया के प्रति राग होगा। यदि किसी को किसी की आलोचना करते देखकर क्रोध उत्पन्न होता है, तो प्रशंसा के प्रति राग होगा। यदि किसी को किसी पर आरोप लगाते देखकर क्रोध उत्पन्न होता है, तो निर्दोषता के अभिमान के प्रति राग होगा, इत्यादि।
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क्रोधाद्भवति सम्मोह:
क्रोध सम्मोहन उत्पन्न करता है, अर्थात् मूर्खता उत्पन्न करता है। वस्तुतः काम, क्रोध, लोभ और मोह-ये चारों ही सम्मोहन उत्पन्न करते हैं, जैसे-
(1) काम से उत्पन्न सम्मोहन में, बुद्धि-शक्ति के क्षीण हो जाने के कारण मनुष्य काम से मोहित होकर ऐसे कार्य करता है, जो उसे नहीं करने चाहिए।
2) क्रोध के कारण जो सम्मोहन बनता है, उसमें व्यक्ति अपने मित्रों और उपासकों से भी सत्य के विपरीत बातें कहता है तथा अनुचित व्यवहार भी करता है।
(3) लोभ के कारण जो सम्मोहन बनता है, उसमें व्यक्ति को सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदि का विचार नहीं रहता तथा वह छल-कपट करके लोगों को धोखा देता है।
(4) राग के कारण जो सम्मोहन बनता है, उसमें समता नहीं रहती, प्रत्युत पक्षपात उत्पन्न होता है।
यदि काम, क्रोध, लोभ और ममता-ये चारों ही सम्मोहन के कारण हैं, तो भगवान ने यहाँ केवल क्रोध का ही उल्लेख क्यों किया?
यदि हम गहराई से देखें, तो काम, लोभ और ममता-इनमें अपना सुख भोगने और स्वार्थ साधने की प्रवृत्ति जागृत रहती है, परन्तु क्रोध में दूसरों को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति जागृत रहती है। अतः क्रोध से उत्पन्न होने वाला मोह, काम, लोभ और मोह से उत्पन्न होने वाले मोह से भी अधिक भयंकर है। इस दृष्टि से भगवान ने यहाँ केवल क्रोध से उत्पन्न होने वाले मोह की बात कही है।
क्या क्रोध हमें हमारे लक्ष्य से भटका देता है?
सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम
अज्ञान के हावी होते ही स्मृति लुप्त हो जाती है, अर्थात शास्त्रों और सद्विचारों के माध्यम से किया गया संकल्प कि ‘हमें कुछ कार्य करना है, कुछ साधन का उपयोग करना है और अपने को बचाना है’, लुप्त हो जाता है और हमें उसकी याद नहीं रहती।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो
स्मृति के नष्ट हो जाने पर बुद्धि में जो विवेक होता है वह लुप्त हो जाता है, अर्थात व्यक्ति में नये विचार सोचने की शक्ति नहीं रहती।
बुद्धिनाशात्प्रणश्यति
विवेक लुप्त होने पर व्यक्ति अपने पद से नीचे गिर जाता है। अतः इस पतन से बचने के लिए सभी साधकों को भगवान के प्रति समर्पित होना बहुत आवश्यक है।
अब भगवान अगले श्लोक में स्थितप्रज्ञ किस तरह चलता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं।
FAQs
क्या वास्तव में हमारी इच्छाएँ ही क्रोध का मूल कारण हैं?
हाँ, गीता के अनुसार इच्छाएँ ही क्रोध का मूल कारण बनती हैं। जब इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आती है, तो व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न होता है। यह मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से सत्य है।
गीता में क्रोध के उत्पन्न होने की प्रक्रिया क्या बताई गई है?
श्लोक 2.62-63 में बताया गया है:
विषय चिंतन → आसक्ति → इच्छा → क्रोध → मोह → स्मृति भ्रम → बुद्धिनाश → पतन
यह एक चक्र है जो धीरे-धीरे व्यक्ति को नीचे गिरा देता है।
क्रोध दूसरों को कैसे नुकसान पहुँचाता है?
क्रोध में व्यक्ति अपने मित्रों, सगे-संबंधियों और यहां तक कि गुरुजनों के प्रति भी अनुचित और अपमानजनक व्यवहार कर बैठता है। यह संबंधों को नष्ट कर सकता है।
क्रोध की स्थिति में हमारी बुद्धि क्यों काम नहीं करती?
क्रोध के कारण मोह उत्पन्न होता है जिससे स्मृति और विवेक का नाश हो जाता है। व्यक्ति अपनी मर्यादा, उद्देश्य और ज्ञान को भूल जाता है और भावनाओं में बहकर गलत निर्णय लेता है।
गीता के अनुसार क्रोध से बचने का उपाय क्या है?
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, ईश्वर में समर्पण और विषयों का निरंतर चिंतन त्याग ही सबसे प्रभावी उपाय हैं। आत्मचिंतन, भक्ति और संयम इस पतन की श्रृंखला को तोड़ सकते हैं।