कैसे ब्रह्माजी के नियम से मिलता है जीवन का उद्देश्य?

कैसे कैसे ब्रह्माजी के नियम से मिलता है जीवन का उद्देश्य?

Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 10 11

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् || 10 ||


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: |
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ || 11 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, सृष्टि के आरम्भ में भगवान ब्रह्मा ने मनुष्यों आदि को कर्तव्य-नियमों द्वारा उत्पन्न किया और उनसे (मुख्यतः मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो तथा कर्तव्यरूपी यज्ञ से तुम लोगों को अपने-अपने कर्तव्य पालन के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त हो। तुम लोग अपने-अपने कर्तव्यों के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता अपने-अपने कर्तव्यों के द्वारा तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त करोगे।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 10 11 Meaning in hindi

क्या आप जानते हैं कि ब्रह्माजी को क्यों कहा जाता है ‘प्रजापति’?

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: 

ब्रह्माजी सृष्टि के रचयिता और स्वामी हैं, इसलिए वे अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ प्रजा की रक्षा और कल्याण के बारे में भी सोचते रहते हैं। क्योंकि जो भी जो उत्पन्न करता है, उसका कर्तव्य बनता है कि वह उसकी रक्षा करे। ब्रह्माजी ने प्रजा की रचना की हैं, उनकी रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं और सदैव उनके कल्याण के बारे में सोचते हैं। इसीलिए उन्हें ‘प्रजापति’ कहा जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में अर्थात् सब कुछ के आरम्भ में ब्रह्माजी ने मनुष्यों को कर्तव्य-कर्म करने की क्षमता तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का सदुपयोग करने की बुद्धि देकर उत्पन्न किया।

स्वाभाविक उपकार (कर्तव्य पालन) पशु, पक्षी, वृक्ष आदि करते हैं, जो सत्य-असत्य का विचार करने में असमर्थ हैं, किन्तु मनुष्य को ईश्वर की कृपा से विशेष विवेक दिया गया है। अतः यदि वह अपने विवेक को महत्व देकर अहितकर कर्म न करे, तो वह लोकहित के लिए स्वाभाविक कर्म भी कर सकता है।

देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा अन्य प्राणी (पशु, पक्षी, वृक्ष आदि) सभी ‘प्रजा’ हैं। अपनी विशेष योग्यता, अधिकार तथा साधन के कारण मनुष्य पर अन्य सभी प्राणियों के पालन-पोषण का दायित्व है। अतः यहाँ ‘प्रजा:‘ शब्द का प्रयोग विशेष रूप से मनुष्य के लिए किया गया है।

कैसे ब्रह्माजी के नियम से मिलता है जीवन का उद्देश्य?

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्

ब्रह्माजी मनुष्यों से कहते हैं कि तुम अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सबकी उन्नति करो। ऐसा करने से तुम्हें लोगों के कर्तव्य पालन के लिए सदैव उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहेगी तथा कभी भी उसकी कमी नहीं होगी। अर्जुन की कर्म न करने की रुचि दूर करने के लिए भगवान कहते हैं कि तुम भी प्रजापति ब्रह्माजी के वचनों से अपने कर्तव्य पालन करना सीखो। दूसरों के हित के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करने से ही तुम अपनी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति कर सकते हो। 

निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करने का विचार करके कर्म करने से मनुष्य मुक्त हो जाता है तथा ध्येय की भावना से कर्म करने से मनुष्य बंधन में पड़ जाता है। प्रस्तुत अध्याय में निष्काम भाव से किए जाने वाले कर्तव्यों की आलोचना की जा रही है। इसलिए यहाँ ईष्टकाम’ शब्द का अर्थ ‘इच्छित भोग’ (जो ध्येय की भावना का सूचक है) लेना उचित नहीं प्रतीत होता। यहाँ इस शब्द का अर्थ है – यज्ञ (कर्तव्य) करने के लिए आवश्यक सामग्री।

कर्मयोगी दूसरों की सेवा या उपकार करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। अतः प्रजापति ब्रह्माजी के नियम के अनुसार उसे दूसरों की सेवा के लिए आवश्यक सामग्री, शक्ति और साधन की कभी कमी नहीं होती। उसे वे उपयोगी वस्तुएं सदैव सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। ब्रह्माजी के नियम के अनुसार जिसने भी अपने कर्तव्य पालन के लिए सामग्री प्राप्त कर ली है, उसे अपने कर्तव्य पालन के लिए उन सामग्रियों की पूर्ण सुविधा रहती है। अपने कर्तव्य पालन के लिए सामग्री कभी किसी के पास अपूर्ण नहीं रहती। ब्रह्माजी के नियम में कभी कोई अंतर नहीं हो सकता, क्योंकि जब उन्होंने अपने कर्तव्य पालन के लिए नियम निश्चित कर दिया है, तो यह उनके ऊपर निर्भर है कि वे अपने कर्तव्य पालन के लिए जितनी आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराएं।

वस्तुतः मनुष्य शरीर भोग के लिए है ही नहीं- इसीलिए किसी भी शास्त्र में ‘सांसारिक सुख भोगो’ जैसी आज्ञा या निर्देश नहीं है। समाज भी सुखों को स्वतंत्र रूप से भोगने की आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत शास्त्र और समाज दोनों ही दूसरों को सुख पहुँचाने की आज्ञा या निर्देश देते हैं। उदाहरण के लिए पिता के लिए ऐसी आज्ञा है कि वह अपने पुत्र का पालन-पोषण करे, परंतु कहीं भी ऐसी आज्ञा नहीं है कि पिता अपने पुत्र से सेवा ले। यही बात पुत्र, पत्नी आदि अन्य सम्बन्धों के लिए भी समझनी चाहिए।

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कर्मयोगी सदैव देने की भावना रखता है, लेने की नहीं,  क्योंकि लेने की भावना ही एकमात्र ऐसी चीज है जो बंधती है। लेने की भावना रखने से न केवल कल्याण की प्राप्ति में बाधा आती है, बल्कि सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में भी बाधा आती है। यह सभी का सामान्य अनुभव है कि संसार में जिसका हिस्सा है, उसे कोई देना नहीं चाहता। इसीलिए ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे, निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करके ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है।

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क्या सभी प्राणियों के कल्याण के लिए कर्म करना मानव का धर्म है?

देवान्भावयतानेन

यहाँ देव शब्द उपलक्षक है, अतः इस पद के अन्तर्गत मनुष्य, देवता, ऋषि, पितर आदि सभी प्राणियों को समझना चाहिए। क्योंकि कर्मयोगी का उद्देश्य अपने कर्तव्य और कर्मों द्वारा सभी प्राणियों को सुख पहुँचाना है। अतः यहाँ ब्रह्माजी मनुष्यों को सभी प्राणियों के उद्धार के लिए यज्ञ रूपी अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करने का आदेश देते हैं। अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करने से मनुष्य स्वतः ही कल्याण को प्राप्त हो जाते हैं, कर्तव्य और कर्म करने की शिक्षा देने वाला परम अधिकारी मनुष्य ही है। मनुष्य को ही कर्म करने की स्वतंत्रता दी गई है, अतः उसे इस स्वतंत्रता का सदुपयोग करना चाहिए।

क्या प्रकृति का संतुलन हमारे कर्तव्यों पर निर्भर है?

ते देवा भावयन्तु व:

जैसे वृक्ष, लताएँ आदि स्वाभाविक रूप से फल देते हैं, किन्तु यदि उन्हें खाद-पानी दिया जाए तो वे विशेष बल से फल देते हैं। उसी प्रकार यज्ञ करने से देवताओं की पुष्टि होती है, जिससे देवताओं के कार्य विशेष रूप से न्यायोचित होते हैं। किन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्यों के द्वारा देवताओं के लिए यज्ञ नहीं करते, तो देवता पुष्टि नहीं पाते, जिससे वे अपने कर्तव्यों को पूरा करने में असफल हो जाते हैं। अपने कर्तव्यों को पूरा न करने के कारण ही संसार में उथल-पुथल होती है, अर्थात् अनावृष्टि-अतिवृष्टि आदि।

क्या बिना अपेक्षा के सेवा करना ही सच्चा कर्तव्य है?

-परस्परं भावयन्त:

इस स्थिति का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि कोई हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें, इसके विपरीत हमें यह समझना चाहिए कि कोई हमारी सेवा करे या न करे, हमें अपने कर्तव्य से उसकी सेवा करनी है। कोई दूसरा क्या करता है या नहीं करता, वह हमें सुख देता है या दुःख देता है, इससे हमें कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, क्योंकि जो दूसरों के कर्तव्यों को देखता है, वह अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है। फलस्वरूप उसका पतन हो जाता है। दूसरों से अपने कर्तव्य करवाना हमारे अधिकार का प्रश्न ही नहीं है। हमें तो अपने कर्तव्यों का पालन केवल इसलिए करना है कि सबका कल्याण हो और उसके द्वारा सबको सुख मिले। यदि हम अपनी समझ, शक्ति, समय और सामग्री में से थोडा भी अपने लिए सेवा में नहीं रखेंगे, तो जडता के कारण अवश्य ही टूट जाएँगे।

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क्या निस्वार्थ सेवा से ही जीवन का परम कल्याण संभव है?

श्रेय: परमवाप्स्यथ

प्रायः ऐसा मान लिया जाता है कि यहाँ परम कल्याण की प्राप्ति का कथन अतिशयोक्ति है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। यदि किसी को इसमें कोई संदेह हो तो वह स्वयं ऐसा करके देख सकता है। जैसे जिसने आरक्षण किया है, उसका आरक्षण लौटा देने से, जिसने आरक्षण किया है, उससे तथा उस आरक्षण से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही संसार की वस्तुओं को संसार की सेवा में लगाने से संसार से तथा संसार की वस्तुओं से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता। संसार से माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही चित-सुख का अनुभव होता है। अतः प्रजापति ब्रह्माजी के वचनों में अतिशयोक्ति की कल्पना करना अनुचित है।

यह सिद्धान्त है कि जब तक मनुष्य अपने लिए कर्म करता है, तब तक उसके कर्म समाप्त नहीं होते तथा वह कर्म से बंधा रहता है। कर्म वह है जो अपने लिए कभी कुछ नहीं करता। अपने लिए कुछ न करने से पाप नहीं होता, क्योंकि पाप कर्म कामना के कारण ही होते है। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि वह शास्त्रविधि के अनुसार फल की इच्छा और आसक्ति को त्यागकर अपने कर्तव्यकर्मों में तत्पर हो जाए, तो कल्याण स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।

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