
Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: || 8 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट कर्तव्यों का पालन करो, क्योंकि कुछ न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तुम्हारा शारीरिक निर्वाह भी नहीं हो सकेगा।
क्या नियत कर्म ही सच्चा धर्म है? जानिए गीता का संदेश
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 8 Meaning in hindi
नियत कर्म क्या हैं और इन्हें क्यों करना चाहिए?
-नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म त्वम
शास्त्रों ने विहित और नियत दो प्रकार के कर्म करने का आदेश दिया है। विहित कर्म का अर्थ है – सामान्यतः शास्त्रों में बताए गए कर्म, जैसे – व्रत, उपवास, पूजा-पाठ आदि। इन विहित कर्मों को पूर्ण रूप से करना मनुष्य के लिए कठिन है। परंतु निषिद्ध कर्मों को छोड देना सरल है। विहित कर्म न कर पाने में उतना दोष नहीं है, जितना निषिद्ध कर्मों को छोड़ देने में लाभ है, जैसे – झूठ न बोलना, चोरी न करना, हिंसा न करना आदि। निषिद्ध कर्मों को छोड देने से विहित कर्म अपने आप होने लगते हैं। नियत कर्म का अर्थ है – अपनी जाति, आश्रम, स्वभाव तथा परिस्थिति के अनुसार प्राप्त होने वाले कर्तव्य कर्म, जैसे – भोजन करना, व्यापार करना, मकान बनवाना, भटके हुए व्यक्ति को रास्ता दिखाना आदि।
कर्मयोग की दृष्टि से अपनी जाति के अनुसार जो नियत कर्तव्य है, वह चाहे कठोर हो अथवा हल्का, वही नियत कर्तव्य है। यहाँ नियतं कुरु कर्म श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि क्षत्रिय होने के कारण अपनी जाति के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार युद्ध करना ही तुम्हारा स्वाभाविक कर्तव्य है। क्षत्रिय के लिए युद्ध का हिंसक कर्म यद्यपि कठोर प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह कठोर नहीं है, प्रत्युत उसके लिए वही नियत कर्तव्य है। दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है कि अपनी जाति की दृष्टि से भी युद्ध करना ही तुम्हारे लिए नियत कर्तव्य है- ‘स्वधर्ममि चावेक्ष्य न विकमपितुमर्हसि’ (Ch 2/31)। वास्तव में अपनी जाति और नियत कर्तव्य दोनों एक ही हैं। तथापि दुर्योधन आदि के लिए युद्ध भी अपनी जाति के अनुसार ही कर्तव्य है, तथापि वह नियत कर्म से भिन्न है, क्योंकि वह अन्यायपूर्ण है, वे युद्ध करके अन्यायपूर्वक राज्य हडपना चाहते हैं। इसलिए उनके लिए यह युद्ध कोई निर्धारित और धर्मसंगत कार्य नहीं है।
क्या कर्म से मुक्ति का मार्ग भी कर्म में ही छिपा है?
-कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:
इसी अध्याय के प्रथम श्लोक में भगवान् अर्जुन के प्रश्न में प्रारम्भ से ही ज्याय: प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। अर्जुन का प्रश्न है कि यदि आप कर्म की प्रत्याशा में ज्ञान को ही श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? इसका उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि कर्म न करने की प्रत्याशा में कर्म करना ही मेरे लिए श्रेष्ठ है। इस प्रकार अर्जुन का विचार युद्धरूपी घोर कर्म से निवृत्त होने का है और भगवान् का विचार अर्जुन को युद्धरूपी नियत कर्म में लगाने का है। अतः अठारहवें अध्याय में भगवान् कहते हैं कि सदोष होने पर भी स्वाभाविक (निर्धारित) कर्म को नहीं छोडना चाहिए- ‘सहजं कर्म कान्तेय सदोषमपि न त्यजेत’ (28। 18/48)। क्योंकि उसका त्याग करने से दोष लगता है और कर्मों के साथ उसका सम्बन्ध भी बना रहता है। अतः कर्म का त्याग करने की प्रत्याशा में नियत कर्म करना ही श्रेष्ठ है। फिर आसक्तिरहित होकर कर्म करना और भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इससे कर्मों से सम्बन्ध ही टूट जाता है। इसलिए इस श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान अर्जुन को आसक्तिरहित होकर नियत कर्म करने की आज्ञा देते हैं और उत्तरार्ध में कहते हैं कि कर्मों के बिना तो तू अपना जीवन भी नहीं चला सकेगा।
स्वरूप से कर्मों का त्याग करने की अपेक्षा से कर्म करते रह कर कर्मों से संबंध विच्छेद करना श्रेष्ठ है, क्योंकि कामना, वासना, फल की आसक्ति, पक्षपात आदि भी कर्म से सम्बन्ध रखते हैं, चाहे व्यक्ति कर्म करे या न करे। कामनाओं आदि का त्याग करने के उद्देश्य से कर्मयोग का अभ्यास करने से कामनाओं आदि का त्याग करना बहुत सरल हो जाता है।
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क्या बिना कर्म किए जीवन संभव है? गीता क्या कहती है?
-शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:
अर्जुन के मन में यह भावना थी कि यदि कर्म नहीं किया तो कर्म से सम्बन्ध स्वतः ही टूट जायेगा। इसलिये भगवान उसे अनेक युक्तियों से कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं। उन्हीं युक्तियों में से एक युक्ति बताते हुए भगवान कहते हैं, अर्जुन! तुम्हें कर्म तो करना ही है। दूसरों की तो बात ही क्या है, कर्म किये बिना तो तुम्हारा शारीरिक निर्वाह (खाना-पीना आदि) भी असम्भव हो जायेगा।
इस श्लोक में भगवान ने कर्म किए बिना शरीर निर्वाह भी नहीं होने की बात कही, इसीलिए सिद्ध होता है किकर्म करना अति आवश्यक है। परंतु कर्म करने से तो मनुष्य बंद जाता है, तो फिर मनुष्य को बंधन से छूटने के लिए क्या करना चाहिए? इसका उत्तर भगवान अगले श्लोक में देते हैं।
FAQs
क्या कर्म किए बिना जीवन संभव है?
नहीं, भगवद गीता कहती है कि कर्म ही जीवन का आधार है। बिना कर्म किए शरीर का भी निर्वाह संभव नहीं है। जीवन में हर कार्य, चाहे छोटा हो या बड़ा, हमारे कर्तव्य का हिस्सा होता है।
भगवद गीता के अनुसार कर्म क्यों आवश्यक है?
गीता के अनुसार “नियत कर्म” — यानी परिस्थितियों, स्वभाव और समाज में हमारी भूमिका के अनुसार मिलने वाले कार्य — करना अनिवार्य है। ये कर्म हमें जीवन की दिशा और उद्देश्य देते हैं।
क्या केवल पूजा-पाठ ही गीता के अनुसार कर्म है?
नहीं, गीता में केवल धार्मिक कर्मों (व्रत, पूजा) की बात नहीं है, बल्कि जीवन के व्यावहारिक कार्य जैसे भोजन करना, व्यापार, घर चलाना, दूसरों की मदद करना — ये सभी नियत कर्म है।
यदि मैं कोई काम न करूं तो क्या यह मोक्ष के लिए सही है?
नहीं। गीता कहती है कि कर्म से भागने से मुक्ति नहीं मिलती। आसक्ति रहित होकर नियत कर्म करना ही मोक्ष की दिशा में पहला कदम है।
क्या हर किसी का नियत कर्म अलग होता है?
हां, गीता के अनुसार हर व्यक्ति का नियत कर्म उसके जन्म, स्वभाव, समाज और जिम्मेदारियों पर आधारित होता है। क्षत्रिय के लिए युद्ध, शिक्षक के लिए शिक्षा, व्यापारी के लिए व्यापार — यही नियत कर्म हैं।
क्या कुछ न करना भी एक विकल्प है?
गीता स्पष्ट करती है कि निष्क्रियता भी एक प्रकार का कर्म है, लेकिन वह नकारात्मक होता है। बिना कर्म किए जीवन नहीं चल सकता, और निष्क्रिय रहना आत्मिक विकास में बाधा बनता है।