Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते || 31 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, खुद के धर्म को देखकर भी आपको विकंपित अर्थात कर्तव्य कर्म से विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्म में युद्ध से बड़ा क्षत्रिय के लिए दूसरा कुछ कल्याण कारक कर्म नहीं।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 31 Meaning in hindi
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि
यह(आत्मा) स्वयं ईश्वर का एक अंश है। जब वह शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब इस ‘स्व’ का कर्तव्य अर्थात् जो कुछ भी वह अपने को मानता है, उसे ‘स्वधर्म’ कहते हैं। जैसे कोई खुद को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र मानता है, वैसे ही अपने-अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। यदि कोई स्वयं को शिक्षक या सेवक मानता है तो उसका कर्तव्य है कि वह शिक्षक या सेवक के कर्तव्यों का पालन करे। यदि कोई स्वयं को किसी का पिता या किसी का पुत्र मानता है, तो पुत्र या पिता के प्रति कर्तव्यों का पालन करना उसका अपना कर्तव्य है।
यहाँ क्षत्रिय के कर्तव्य को धर्म कहा गया है। क्षत्रिय का विशेष कर्तव्य युद्ध से पीछे न हटना है। अर्जुन क्षत्रिय है, इसलिए युद्ध करना उसका कर्तव्य है। इसीलिए भगवान कहते हैं कि अपने धर्म के नजरिए से भी देखो तो क्षत्रिय धर्म के अनुसार लड़ना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम्हें कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए।
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धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते
क्षत्रिय के लिए धर्मपूर्वक युद्ध करने से बढ़कर कोई पुण्यकर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रिय का एकमात्र विशेष कर्म क्षत्रिय के कर्तव्य का पालन करना ही है (गीता अ. 18/43)। [इसी प्रकार ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के लिए अपने-अपने कर्तव्य पालन के अतिरिक्त कोई अन्य कल्याणकारी कर्म नहीं है।]
सातवें श्लोक में अर्जुन ने प्रार्थना की थी कि, आप मेरे लिए निश्चित श्रेय की बात कहें। जवाब में भगवान कहते हैं कि पुण्य (कल्याण) तो अपने धर्म का पालन करने से ही होगा। किसी भी दृष्टिकोण से, अपना धर्म त्यागना लाभदायक नहीं है। इसलिए तुम्हें अपने युद्ध-धर्म से विचलित नहीं होना चाहिए।
FAQs
भगवद गीता के अनुसार स्वधर्म क्या होता है?
स्वधर्म वह कर्तव्य है जो व्यक्ति अपने सामाजिक, पारिवारिक या व्यक्तिगत पहचान के अनुसार निभाता है – जैसे क्षत्रिय का युद्ध करना, शिक्षक का शिक्षा देना, पिता का पुत्र के प्रति कर्तव्य निभाना आदि।
क्षत्रिय का सबसे बड़ा धर्म क्या है?
गीता के अनुसार क्षत्रिय का सर्वोच्च धर्म धर्मपूर्वक युद्ध करना है। इससे बढ़कर उसके लिए कोई अन्य कल्याणकारी कर्म नहीं है।
क्या गीता में सभी वर्णों के लिए स्वधर्म समान रूप से महत्वपूर्ण बताया गया है?
हाँ, गीता में कहा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – सभी के लिए अपने-अपने स्वधर्म का पालन ही कल्याणकारी है।
स्वधर्म का आज के जीवन में क्या मतलब है?
आज के समय में स्वधर्म का अर्थ है – अपनी भूमिका और जिम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाना। जैसे अगर आप डॉक्टर हैं, शिक्षक हैं, माता-पिता हैं या कोई भी भूमिका निभा रहे हैं, तो उसे पूरी निष्ठा और समर्पण से करना ही आपका स्वधर्म है।
क्या नौकरी या व्यवसाय करना भी स्वधर्म हो सकता है?
हाँ, अगर आप कोई भी कार्य ईमानदारी, सेवा भाव और जिम्मेदारी के साथ कर रहे हैं तो वह आपका स्वधर्म ही है। चाहे वह नौकरी हो, व्यापार, सेवा या कोई पारिवारिक कर्तव्य – उसे निभाना धर्म है।
स्वधर्म निभाना क्यों है जीवन का सबसे बडा कर्तव्य?
स्वधर्म यानी अपने कर्म और स्वभाव के अनुसार किया गया कर्तव्य। यह आत्मा की प्रकृति से जुड़ा होता है। जब हम स्वधर्म निभाते हैं, तब हम अपने जीवन के असली उद्देश्य को पूरा करते हैं। इससे आत्मिक संतोष, मानसिक शांति और सामाजिक संतुलन मिलता है। यही कारण है कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वधर्म का पालन सबसे बड़ा धर्म बताया है।