क्या कामनाएं ही ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु हैं?

क्या कामनाएं ही ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु हैं?

Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । 
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥

अर्थात भगवान कहते हैं, और हे कुन्तीनन्दन! मनुष्य का अन्तःकरण इस काम से ढका हुआ है, जो इस अग्नि के समान है, जो कभी तृप्त नहीं होती और जिससे ज्ञानीजन निरन्तर युद्ध करते रहते हैं।

shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 39 Meaning in Hindi

एतेन

सैंतीसवें श्लोक में भगवान ने बताया है कि पाप करने का मुख्य कारण ‘काम’ है, अर्थात कामना। यहाँ उसी काम के लिए ‘एतेन’ का उल्लेख किया गया है।

क्या हमारी इच्छाएँ आग की तरह कभी शांत नहीं होतीं?

दुष्पूरेणानलेन च

जिस प्रकार अग्नि में निरन्तर उपयुक्त आहुति देने से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार इच्छा के अनुकूल सुखों का निरन्तर भोग करने से इच्छा कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही जाती है। जो भी वस्तु उसके सामने आती रहती है, वह उसे इच्छा की अग्नि के समान भस्म करती रहती है।

सुख और संग्रह की इच्छा कभी समाप्त नहीं होती। जितना अधिक सुख और विषय मिलते हैं, उतनी ही उनकी भूख बढ़ती जाती है। क्योंकि इच्छा जड़ में निहित होती है, इसलिए वह कभी भी मूल संबंध से मुक्त नहीं होती, बल्कि और अधिक बढ़ती जाती है। 

क्या काम ही हर इच्छा का मूल स्रोत है?

कामरूपेण

भौतिक संबंधों से उत्पन्न सुख की इच्छा को ‘काम’ कहते हैं। नाशवान संसार में महत्त्व का थोड़ा-सा भी बोध होना ‘काम’ है।

अप्राप्य को प्राप्त करने की इच्छा ‘काम’ है। हृदय में दबी हुई अनेक सूक्ष्म इच्छाओं को ‘वासना’ कहते हैं। वस्तुओं की आवश्यकता की भावना ‘स्पृहा’ है। किसी वस्तु में श्रेष्ठता और प्रेम देखना ‘आसक्ति’ है। किसी वस्तु को प्राप्त करने की संभावना होना ‘आशा’ है। और जब किसी वस्तु की अधिक प्राप्ति हो जाती है—वह ‘लोभ’ या ‘तृष्णा’ बहुत बढ़ जाती है, तो वह ‘याचना’ बन जाती है। बस यही है। वस्तुओं की इच्छा ही काम के सभी रूप हैं।

यह भी पढ़ें : क्या हमारे कर्म से होती है वर्षा? जानिए गीता के सृष्टि चक्र का रहस्य

क्या कामनाएं ही ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु हैं?

ज्ञानिनो नित्यवैरिणा

यह ‘ज्ञानिनः’ पद साधनों में लगे हुए बुद्धिमान साधकों के लिए आया है। क्योंकि बुद्धिमान साधक ही इस कर्मरूपी बुराई को पहचानकर उसका नाश करता है। अन्य लोग जो साधन नहीं करते, वे इसे पहचानते ही नहीं, वरन् उसे सुखदायी मानते हैं।

भगवान कहते हैं कि यह काम ही बुद्धिमान साधक का शाश्वत शत्रु है। कामना उत्पन्न होते ही बुद्धिमान साधक सोचता है कि किसी पर कोई विपत्ति आएगी। कामना में ही संसार का महत्त्व और आश्रय निहित है, जो पारलौकिकता के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। बुद्धिमान साधक प्रारंभ से ही कर्म को चूमता रहता है। अंत में कामना ही सबको दुःख पहुँचाती है। इसीलिए यह साधक का शाश्वत (निरंतर) शत्रु है।

क्या इच्छाएँ हमारी चेतना और विवेक को ढक रही हैं?

आवृतं ज्ञानमेतेन

चेतना केवल पशु-पक्षी आदि में ही होती है। मनुष्येतर योनियों में यह चेतना विकसित नहीं होती और केवल निर्वाह तक ही सीमित रहती है। किन्तु यदि मनुष्य में कामना न हो, तो इस चेतना का विकास हो सकता है, क्योंकि कामना के कारण ही मानव चेतना आवृत रहती है। चेतना के आवृत होने के कारण ही मनुष्य अपने लक्ष्य परमात्मा प्राप्ति की ओर अग्रसर नहीं हो पाता, क्योंकि कामना उसे आध्यात्मिक तत्व की ओर जाने नहीं देती, बल्कि उसे जड़ तत्व से ही जोड़े रखती है।

यदि कोई अपने बारे में अप्रिय और असत्य बातें बोलता है, तो बुरा लगता है और यदि कोई सुखद और सत्य बातें बोलता है, तो अच्छा लगता है। इसका अर्थ है कि अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का ज्ञान अर्थात् विवेक सभी मनुष्यों में रहता है। किन्तु इसके बावजूद यदि वह अप्रिय और असत्य बातें बोलता है, अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, तो इसका कारण यह है कि कामना ने उसके विवेक को ढँक लिया है।

संसार तो क्षणभंगुर है। शरीर, धन, भूमि, मकान आदि सभी सांसारिक वस्तुएँ निरंतर विनाश की ओर अग्रसर हैं और हमसे विमुख भी हो रही हैं। किन्तु भोगों का भोग करते समय उनकी अनित्यता का ज्ञान नहीं होता। पदार्थ को नित्य और अनित्य समझे बिना भोग नहीं हो सकता। साधारण मनुष्य तो क्या, साधक भी भोगों को नित्य और अनित्य मानकर उनमें फँस जाते हैं। इसका कारण यह है कि बुद्धि कामनाओं से ढंक जाती है।

किसी शत्रु को नष्ट करना हो तो उसके रहने का स्थान पता होना चाहिए! इसीलिए भगवान अगले श्लोक में ज्ञानीओ के नित्य वेरी “कामना” के रहने का स्थान बताते हैं।

Also Read:

क्या बढ़ती इच्छाएँ हमारे विवेक और आत्मिक विकास को रोक रही हैं?

क्या इच्छाएं ही हमारे सभी दुखों और पापों की जड हैं?

क्या कोई अदृश्य शक्ति हमें पाप करने को मजबूर करती है?

क्या दूसरों की राह अपनाना हमारी असफलता का कारण बन रहा है?

Read all 18 chapters of the Bhagavad Gita for free

Scroll to Top