कर्मों का कर्ता कौन है – मनुष्य या ईश्वर?

कर्मों का कर्ता कौन है – मनुष्य या ईश्वर?

Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥१४॥

अर्थात भगवान कहते हैं, ईश्वर मनुष्य को उसके कर्मों, कार्यों या उसके परिणामों के आधार पर नहीं बनाता, बल्कि प्रकृति ही उसके लिए कार्य करती है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 14 Meaning in hindi

कर्मों का कर्ता कौन है – मनुष्य या ईश्वर?

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः

सृष्टि की रचना का कार्य परमेश्वर का है, इसीलिए उन्होंने “प्रभु:” पद की उपाधि दी है। परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं और सबके शासक एवं नियन्ता हैं। सृष्टि की रचना का कार्य करते हुए भी वे कर्ता है।

किसी भी कर्म के कर्ता का सम्बन्ध ईश्वर द्वारा नहीं बनाया जाता। मनुष्य स्वयं कर्मों का कर्तापन निर्मित करता है। सभी कर्म प्रकृति द्वारा किए जाते हैं, परंतु मनुष्य अज्ञानवश स्वयं को प्रकृति से तादात्म्य मानकर उसके द्वारा किए गए कर्मों का कर्ता बन जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्तापन ईश्वर द्वारा नहीं बनाया गया है, अपितु आत्मा का अपना माना गया है। अतः आत्मा इसका त्याग कर सकती है।

ईश्वर ने यह भी नहीं कहा है कि कुछ जीवों को कुछ अच्छे या बुरे कर्म करने ही होंगे। यदि ईश्वर ने ऐसा कहा होता, तो निषेध बताने वाले सभी शास्त्र, गुरु, उपदेश आदि व्यर्थ हो जाते, उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं रहती और जीवों को अपने कर्मों का फल भोगना ही नहीं पड़ता। ‘न कर्माणी’ शब्द सिद्ध करते हैं कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है।

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क्या मनुष्य स्वयं अपने सुख-दुःख का कारण है?

न कर्मफलसंयोगं

जीव को अपने द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। जड़ होने के कारण कर्म स्वयं अपने फल भोगने में असमर्थ है। अतः कर्म की 37वीं परिभाषा है: ‘लभते च ततः कामान्मान्मयाईव विहितान्हि तान’ (गीता Ch 7/22)। भगवान कर्मों का फल देते हैं, परंतु भगवान उन्हें फलों के साथ नहीं जोड़ते, अपितु जीव स्वयं उन्हें जोड़ता है। जीव अज्ञानतावश कर्मों का कर्ता बनकर और कर्म के फलों में आसक्त होकर अपने फलों को कर्म के फलों के साथ जोड़ता है और उसके कारण सुखी-दुःखी होता है। यदि वह अपने फलों को कर्म के फलों के साथ न जोड़े, तो वह कर्म के फलों के संबंध से मुक्त रह सकता है। ऐसे पुरुष के लिए जो कर्म के फलों के साथ नहीं जुड़ता, अठारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में ‘संन्यासिनम्’ पद बताया गया है। उसे न तो इस लोक में और न ही परलोक में कर्मों का फल मिलता है। यदि ईश्वर ने कर्म और फल का सम्बन्ध बनाया होता तो आत्मा कर्म के फल से कभी मुक्त न हो पाती।

क्या भगवान हमारे कर्मों को नियंत्रित करते हैं या हमारा स्वभाव?

स्वभावस्तु प्रवर्तते

कर्तापना, कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध यह है कि ये तीनों ही मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार करता है। यहाँ स्वभाव शब्द से तात्पर्य प्रकृति (आदत) से है, जो आत्मा द्वारा स्वयं निर्मित होती है। जब तक स्वभाव में राग-द्वेष रहता है, तब तक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जब तक स्वभाव शुद्ध नहीं होता, तब तक आत्मा स्वभाव के अधीन रहती है।

जब तक आत्मा का प्रकृति अर्थात् स्वभाव के साथ सम्बन्ध स्वीकार है, तब तक कर्तापन, कर्म और कर्मफल के साथ संगति – इन तीनों में आत्मा की स्वतन्त्रता बनी रहेगी, जो आत्मा की अपनी ही रचना है।

उपरोक्त श्लोकों के माध्यम से भगवान कह रहे हैं कि जीवात्मा की तीन सृष्टियाँ, कर्म और कर्मफल (भोग) का संयोग उसकी अपनी ही सृष्टियाँ हैं, अतः वह इनका त्याग करके वैराग्य का अनुभव कर सकता है।

अगर भगवान किसी के कर्तृत्व, कर्म, और कर्म फलसंयोग की रचना नहीं करते तो फिर वह किसी के कर्मों के फल भागी किस तरह हो सकते हैं? इस बात का स्पष्ट तरीके से अगले श्लोक में वर्णन करते हैं।

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