
Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 15
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।॥१५॥
अर्थात भगवान कहते हैं, सर्वव्यापी परमात्मा न तो किसी के अच्छे और न ही बुरे कर्मों को स्वीकार करते है, परन्तु ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है और सभी प्राणी उससे मोहित हो रहे हैं।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5 Verse 15 Meaning in hindi
अगर भगवान सबके भीतर हैं तो फिर पाप-पुण्य से अलग कैसे हैं?
–नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः
कर्मफल का भागी बनना दो प्रकार से होता है – जो कर्म करता है वह भी कर्मफल का भागी बनता है, और जो दूसरों से कर्म कराता है वह भी कर्मफल का भागी बनता है। परन्तु परमात्मा न तो किसी के कर्म का कर्ता है, न ही कर्म कराने वाले, अतः वह किसी के कर्मफल का भागी नहीं बन सकते।
सूर्य समस्त जगत को प्रकाश देता है और उस प्रकाश में मनुष्य अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के कर्म करते हैं, परंतु सूर्य का उन कर्मों से कोई संबंध नहीं है। इसी प्रकार प्रकृति को भी परमात्मा से शक्ति प्राप्त होती है, अर्थात् समस्त जगत को शक्ति प्राप्त होती है। उसी की शक्ति पाकर प्रकृति और उसके कार्य जगत, शरीर आदि का संचालन करते हैं। उस शरीर आदि से जो पाप-पुण्य होते हैं, उनका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। क्योंकि परमात्मा ने मनुष्य को ही स्वतंत्र शक्ति दी है, इसलिए मनुष्य उन कर्मों के फल में स्वयं को भागीदार मान सकता है और परमात्मा को भी मान सकता है, अर्थात वह अपने सभी कर्मों और कर्मों के फलों को परमात्मा को अर्पित भी कर सकता है। जो परमात्मा द्वारा दी गई स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके स्वयं को कर्मों का कर्ता और भोक्ता मानता है, वह बंधन में पड़ जाता है। परमात्मा उसके कर्मों और कर्मों के फलों को स्वीकार नहीं करते, परंतु जो मनुष्य उस स्वतंत्रता का सदुपयोग करके अपने कर्मों और कर्मों के फलों को परमात्मा को अर्पित करता है, वह मुक्त हो जाता है। परमात्मा उसके कर्मों और कर्मों के फलों को स्वीकार कर लेते हैं।
क्या बुद्धि के प्रयोग से अज्ञान का नाश संभव है?
–अज्ञानेनावृतं ज्ञानं
स्वरूप का ज्ञान सभी मनुष्यों के लिए स्वतःसिद्ध है, किन्तु यह ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है। उस अज्ञान के कारण ही प्राणी अज्ञान को प्राप्त हो रहे हैं। अपने को कर्मों का कर्ता मानना अज्ञान है। प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि दी है, जिससे इस अज्ञान का नाश कर सकता है। इसीलिए इस अध्याय के आठवें श्लोक में कहा गया है कि सांख्य योगी को अपने को कभी किसी कर्म का कर्ता नहीं समझना चाहिए और तेरहवें श्लोक में कहा गया है कि बुद्धि से सब कर्मों का कर्तापन त्याग देना चाहिए।
शरीर आदि सभी वस्तुएँ निरंतर परिवर्तनशील हैं। स्वरूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूप अपरिवर्तनीय होने पर भी, परिवर्तनशील वस्तुओं के साथ स्वयं को एक मानना अज्ञान है। शरीर आदि सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं—ऐसा अनुभव करने वाला स्वयं को कभी नहीं बदलता। इसीलिए कोई भी अपने परिवर्तन का अनुभव नहीं करता। अतः मैं परिवर्तनशील नहीं हूँ—इस प्रकार परिवर्तनशील वस्तुओं के साथ अपनी असंगति का अनुभव करने से अज्ञान दूर हो जाता है और दार्शनिक ज्ञान स्वतः ही प्रकट हो जाता है। क्योंकि प्रकृति के कार्य के साथ अपना संबंध मानने से ही दार्शनिक ज्ञान छिपा रहता है।
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मनुष्य और पशु में अंतर क्या है — विवेक या केवल रूप?
–तेन मुह्यन्ति जन्तवः
भगवान ने जन्तवः पद की उपाधि देकर मानो मानव पर प्रहार किया है कि जो लोग अपने विवेक को महत्व नहीं देते, वे वास्तव में कीड़े-मकोड़े अर्थात् पशु हैं, क्योंकि उनके ज्ञान और पशुओं के ज्ञान में कोई अंतर नहीं है। कोई भी मनुष्य केवल दिखने से ही मानव नहीं होता। जो अपने विवेक को महत्व देते हैं, वे ही मानव हैं। पशु भी इंद्रियों के माध्यम से सुख भोगते हैं, परंतु उन सुखों को भोगना मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख-दुःख से मुक्त तत्व की प्राप्ति है। जिन्हें अपने कर्तव्य-अकर्तव्य का भली-भाँति ज्ञान है, वे ही साधक कहलाने के योग्य हैं।
जीव स्वभावतः अकर्ता है और सुख-दुःख से रहित है, केवल अपनी मूढ़ता के कारण ही वह कर्ता बनता है और कर्म के फल में बंध कर सुखी-दुःखी होता है। इसी मूढ़ता (अज्ञान) को यहाँ ‘तेन’ शब्द से कहा गया है। उस मूढ़ता के कारण ही अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहा है, इसलिए कहा गया है कि तेन मुह्यन्ति जन्तवः।
इस श्लोक में भगवान ने दिखाया की आज्ञन द्वारा ज्ञान ढका होने से सारे जीव मोहित हो रहे हैं, खुद के विवेक द्वारा उसे अज्ञान का नाश करके जो ज्ञान का उदय होता है उसका वर्णन (महिमा) भगवान अगले श्लोक में करते हैं।









 
  
  