
माँ काली को समर्पित एक प्रमुख हिंदू तीर्थस्थल है। यह मंदिर न केवल कोलकाता शहर की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह 51 शक्तिपीठों में से एक भी है, जो इसे और भी पवित्र बनाता है। कालीघाट मंदिर का इतिहास सदियों पुराना है, और यह विभिन्न किंवदंतियों और कहानियों से जुड़ा हुआ है। यह मंदिर हर साल लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। कालीघाट मंदिर में माँ काली की प्रतिमा भक्तों को शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है। मंदिर के गर्भगृह में माँ काली की एक भव्य प्रतिमा स्थापित है, जो काले पत्थर से बनी है। इस प्रतिमा में माँ काली को त्रिनेत्र और चतुर्भुज रूप में दर्शाया गया है। उनके हाथों में खड्ग, त्रिशूल, नरमुंड और अभय मुद्रा है। मूर्ति सोने से बनी है और इसमें चार हाथ, तीन आंखें और एक लंबी जीभ है। इसके अलावा, मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व कोने में एक पवित्र तालाब है जिसे ‘कुंडुपुकुर’ नाम से जाना जाता है।
कालीघाट काली मंदिर की ऐतिहासिक किंवदंतियाँ
मंदिर में भक्तों की अटूट आस्था है, और यह मंदिर हर साल लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। कालीघाट मंदिर में माँ काली की प्रतिमा भक्तों को शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है। इतिहास 15वीं शताब्दी से मिलता है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि यह मंदिर उससे भी पुराना है। मंदिर के गर्भगृह में माँ काली की एक भव्य प्रतिमा स्थापित है, जो काले पत्थर से बनी है। इस प्रतिमा में माँ काली को त्रिनेत्र और चतुर्भुज रूप में दर्शाया गया है। उनके हाथों में खड्ग, त्रिशूल, नरमुंड और अभय मुद्रा है।
पौराणिक कथाएँ और मान्यताएँ
मंदिर की उत्पत्ति से जुड़ी कई पौराणिक कथाएँ हैं, जो माँ काली की लीलाओं और मंदिर के महत्व को दर्शाती हैं। एक लोकप्रिय किंवदंती के अनुसार, सती के दाहिने पैर की चार उंगलियां यहां गिरी थीं, जब भगवान शिव उनके शरीर को लेकर तांडव कर रहे थे। इसलिए, इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है। हर साल नवरात्रि के दौरान विशेष उत्सव मनाया जाता है। इस दौरान, मंदिर को फूलों और रोशनी से सजाया जाता है, और हजारों भक्त माँ काली की पूजा करने के लिए यहां आते हैं।
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कोलकाता में कालीघाट काली मंदिर का महत्व
कोलकाता में काली घाट मंदिर बहुत लोकप्रिय है। हिंदू महीने अश्विन के चंद्र दिवस पर, दीवालीपूरे भारत से लोग प्रदर्शन करने के लिए एकत्रित होते हैं । मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह मंदिर कोलकाता शहर की पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। मंदिर में महिला पंडितों का होना, और पशु बलि की प्रथा इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाती है। मंदिर में स्थित ‘गंगा’ नामक तालाब को पवित्र माना जाता है। यहाँ स्नान करने से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मंदिर की वास्तुकला भी अद्भुत है, जिसमें देवी षष्ठी, शीतला और मंगल चंडी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। मंदिर की अद्भुत और अनोखी संरचना के कारण यह बहुत सुंदर दिखता है। तीन पत्थरों पर देवी षष्ठी, शीतला और मंगल चंडी की प्रतिमाएं बनी हैं।
कालीघाट काली मंदिर की वास्तुकला
मंदिर अपनी विशिष्ट बंगाली वास्तुकला के लिए जाना जाता है, जो प्राचीन भारतीय कला और संस्कृति का प्रदर्शन करती है। संरचना में ‘चाला’ शैली का प्रभाव दिखाई देता है। मंदिर में जटिल नक्काशी, मूर्तियाँ और भित्तिचित्र हैं, जो प्राचीन कला और संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं। मंदिर में जटिल नक्काशी, मूर्तियाँ और भित्तिचित्र हैं, जो प्राचीन कला और संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं। इसका उल्लेख अनेक बंगाली भक्ति पुस्तकों में मिलता है। 15th और 17th सदियों से ऐसा माना जाता रहा है कि यह अस्तित्व में है चन्द्रगुप्त द्वितीय का युग.
राजा मानसिंह ने सोलहवीं शताब्दी में एक छोटी सी झोपड़ी के आकार की इमारत के रूप में प्रारंभिक मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के मुख्य हॉल में देवी काली की एक अद्भुत मूर्ति स्थापित है। माँ काली के वर्तमान स्वरूप को दो संतों, ब्रह्मानंद गिरि और आत्माराम गिरि ने गढ़ा था। मूर्ति में तीन आंखें, चार हाथ और एक लंबी जीभ है। यह सोने से बनी है। मंदिर की विक्टोरियन शैली की टाइलें मोर और फूलों के आकार की हैं।
देवी काली को अर्पित भोग
यह मंदिर न केवल अपनी धार्मिक महत्ता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहाँ परोसे जाने वाले विशेष भोग के लिए भी जाना जाता है। मंदिर में भोग को तीन अलग-अलग समय पर परोसा जाता है, जिसमें प्रत्येक भोग का अपना विशेष महत्व है। सुबह 6:30 बजे, मंदिर के द्वार भक्तों के लिए खुलते ही, पहला भोग परोसा जाता है। इस भोग में ताजे फल और विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ शामिल होती हैं । जो माँ काली को अर्पित की जाती हैं। यह भोग भक्तों के लिए एक शांत और आध्यात्मिक शुरुआत का प्रतीक है। दोपहर 2:00 बजे, दिन का मुख्य भोग परोसा जाता है। यह भोग विशेष रूप से तैयार किया जाता है, जिसमें चावल, पुलाव, बेसन में डूबी और तली हुई सब्जियाँ, मटन, मछली, करी और फल शामिल होते हैं। यह भोग माँ काली को शक्ति और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। शाम 6:00 बजे से 7:00 बजे के बीच, दूसरा मुख्य भोग परोसा जाता है। इस भोग में संदेश, बैंगन भाजा, आलू भाजी और विभिन्न प्रकार की मौसमी सब्जियाँ शामिल होती हैं। यह भोग माँ काली को शांति और संतोष का प्रतीक माना जाता है। रात 10:30 बजे, दिन का अंतिम भोग परोसा जाता है। इस भोग में केवल मिठाइयाँ और दूध शामिल होते हैं। यह भोग माँ काली को विश्राम और शांति का प्रतीक माना जाता है।
कोलकाता का कालीघाट काली मंदिर क्यों लोकप्रिय है?
जो भक्तों को एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है। मंदिर की वास्तुकला भी दर्शनीय है, जो प्राचीन भारतीय शिल्प कौशल का अद्भुत उदाहरण है। इस प्रकार, कालीघाट मंदिर न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और इतिहास का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु न केवल देवी के दर्शन करते हैं, बल्कि उनसे आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं। विशेष रूप से, संतान प्राप्ति की कामना रखने वाले भक्त यहाँ बड़ी संख्या में आते हैं।
कालीघाट मंदिर की यात्रा और दर्शन
मंदिर की यात्रा एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुभव है। यह मंदिर कोलकाता शहर के दक्षिणी भाग में स्थित है, और यह सड़क, रेल और मेट्रो मार्ग से आसानी से पहुँचा जा सकता है। आसपास कई धर्मशालाएँ, होटल और रेस्तरां हैं, जहाँ पर्यटक ठहर सकते हैं और भोजन कर सकते हैं। कोलकाता शहर में कई दुकानें हैं, जहाँ पर्यटक स्मृति चिह्न और धार्मिक वस्तुएँ खरीद सकते हैं।
कालीघाट मंदिर कहाँ स्थित है?
यह मंदिर कोलकाता, पश्चिम बंगाल के दक्षिणी भाग में स्थित है।
कालीघाट मंदिर के दर्शन का समय क्या है?
मंदिर सुबह से रात तक खुला रहता है, लेकिन दर्शन का समय त्योहारों और विशेष दिनों के अनुसार बदल सकता है।
कोलकाता में यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय क्या है?
सर्दियों का मौसम (अक्टूबर से मार्च) कोलकाता की यात्रा के लिए सबसे अच्छा है।
कालीघाट मंदिर में संतान प्राप्ति के लिए कौन सी पूजा की जाती है?
यहाँ विशेष रूप से संतान प्राप्ति के लिए देवी काली की पूजा की जाती है।
कालीघाट मंदिर में पशु बलि की प्रथा है?
हाँ, कुछ विशेष अवसरों पर पशु बलि की प्रथा है, लेकिन यह आजकल बहुत कम हो गई है और विवादित भी है।