Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 2
श्रीभगवानुवाच |
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन || 2 ||
अर्थात श्री भगवान बोले – हे अर्जुन! इस विचित्र अवसर पर तुम्हारे अन्दर यह कायरता कहाँ से आ गयी, जिसका आचरण श्रेष्ठ पुरुष नहीं करते, जो स्वर्ग की प्राप्ति नहीं कराती तथा जो यश भी नहीं देती.

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 2 Meaning in hindi
अर्जुन :
इस संबोधन का अर्थ यह है कि आपका हृदय स्वच्छ एवं पवित्र है। इसलिए आपके स्वभाव में यह बचपना और कायरता पूरी तरह से प्रतिकूल है। फिर भी यह कायरता आपके पास कैसे आयि?
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् :
भगवान आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुन से कहते हैं कि ऐसे युद्ध के अवसर पर तुमें उत्साहित होना चाहिए tथा. लेकिन इस समय तुम्हारे अंदर यह कायरता कहां से आ गयी?
आश्चर्य दो प्रकार से होता है – स्वयं को न जानने के कारण और दूसरों को चेतावनी देने के लिए। यहाँ भगवान द्वारा कहे गए आश्चर्यजनक शब्द केवल अर्जुन को सावधान करने के लिए हैं, ताकि उसका ध्यान अपने कर्तव्य की ओर लग जाए।
कृत:
कहने का तात्पर्य यह है कि मूलतः यह कायरता आपकी (अपनी) गलती नहीं है। यह एक अस्थायी दोष है, जो हमेशा नहीं रहेगा।
‘समुपस्थितम्’ :
कहने का तात्पर्य यह है कि कायरता सिर्फ आपकी भावनाओं और वचनों में ही नहीं है, लेकिन यह आपके कार्यों पर भी छा गई है, जिसके कारण तुमने अपना धनुष-बाण छोड़कर रथ के बीच में बैठ गये हो।
‘अनार्यजुष्टम्’ :
बुद्धिमान, मनुष्यों में जो श्रेष्ठ भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, वे केवल अपने कल्याण के उद्देश्य से होती हैं। इसीलिए श्लोक के उत्तरार्ध में भगवान पहले उपर्युक्त स्थिति बताते हैं और कहते हैं कि तुम्हारे अन्दर जो कायरता आ गयी है, वह श्रेष्ठ मनुष्यों को भी स्वीकार नहीं होती। क्योंकि आपकी कायरता में आपके अपने कल्याण की कोई परवाह नहीं है। कल्याण चाहने वाले श्रेष्ठ मनुष्य, क्रियाशीलता और निवृत्ति दोनों में ही अपने कल्याण का लक्ष्य रखते हैं। वे अपने कर्तव्य के प्रति कायरता विकसित नहीं करते। वे कल्याण की प्राप्ति के उद्देश्य से, परिस्थिति के अनुसार सौंपे गए कर्तव्यों को उत्साहपूर्वक और स्वेच्छा से पूरा करते हैं। वे आपकी तरह कायरता के कारण युद्ध या किसी अन्य कर्तव्य से पीछे नहीं हटते। अतः युद्ध रूपी जो कर्तव्य तुम्हें मिला है, उसे त्यागना तुम्हारे लिए लाभदायक नहीं है।
‘अस्वर्ग्यम’ :
कल्याण का मुद्दा अपने सामने नहीं रख कर अगर सांसारिक दृष्टिकोण से भी देखने में आए तो संसार से स्वर्ग ऊंचा है। परंतु तुम्हारी कायरता तो स्वर्ग के लिए भी अनुकूल नहीं है, अर्थात कायरतापूर्वक युद्ध से निवृत्त होने का फल भी स्वर्ग की प्राप्ति नहीं करा सकता।
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‘अकीर्तिकारम’ :
अगर स्वर्ग प्राप्त करने का भी लक्षण ना हो तो भी अच्छा मानने वाला व्यक्ति वही कार्य करता है जिससे उसे संसार में प्रसिद्धि मिलती है। परन्तु तुम्हारी यह कायरता इस संसार में भी यश नहीं, अपितु अपमान लाती है। इसलिए, आपका कायरता महसूस करना पूरी तरह से अनुचित है।
भगवान ने यहाँ ‘अनार्यजुष्टम्’ ‘अश्वर्ग्यम्’ ओर ‘अकीर्तिकारम’ – ऐसे कम रख के तीन प्रकार के मनुष्य को दिखाया है, (1) जो विचारशील मनुष्य हैं, वे केवल अपना कल्याण चाहते हैं। उनका लक्ष्य, उनका उद्देश्य, केवल कल्याण है। (2) जो पुण्यात्मा लोग हैं वे अच्छे कर्मों के माध्यम से स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं। वे स्वर्ग को सर्वोत्तम मानते हैं और केवल उसे पाने का लक्ष्य रखते हैं। (3) जो साधारण मनुष्य हैं वे केवल संसार का सम्मान करते हैं। इसीलिए वे संसार में अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं और उस प्रसिद्धि को ही अपना लक्ष्य मानते हैं।
उपरोक्त तीन पदों का प्रयोग करते हुए भगवान अर्जुन को चेतावनी देते हैं कि इस युद्ध को न लड़ने का तुम्हारा निर्णय न तो विचारशील और धर्मपरायण लोगों के लक्ष्य, कल्याण और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए अनुकूल है, और न ही यह सामान्य लोगों के लक्ष्य और गौरव के लिए अनुकूल है। इसलिए, मोह के कारण युद्ध न करने का आपका निर्णय बहुत ही तुच्छ है, क्योंकि यह आपको नीचे गिरा देगा, नरक में ले जाएगा और आपको अपमानित करेगा।
कायरता आजाने के बाद अब क्या करना चाहिए?? इस जिज्ञासा को दूर करने के लिए भगवान अगले श्लोक में कुछ कहते हैं।
FAQs
अर्जुन के अंदर कायरता क्यों उत्पन्न हुई?
कठिन परिस्थितियों में मोह और भावनात्मक द्वंद्व के कारण अर्जुन के मन में कायरता उत्पन्न हुई।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की कायरता को कैसे देखा?
श्रीकृष्ण ने इसे एक अस्थायी दोष बताया जो न तो धर्म के अनुकूल है, न ही स्वर्ग या यश के।
क्या कायरता धर्म स्वर्ग और यश से वंचित कर सकती है?
हाँ, गीता के अनुसार कायरता न तो स्वर्ग दिला सकती है और न ही संसार में यश।