क्या लोभ हमारे विवेक को नष्ट कर देता है? अर्जुन का गीता में गंभीर प्रश्न

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 38 39

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् || 38 ||

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन || 39 ||

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 38 39 Meaning

अर्थात अर्जुन कहते है, यद्यपि लोभ से नष्ट हो चुके विवेक वाले दुर्योधन आदि पुरुष अपने कुल के नाश का दोष तथा अपने मित्रों के प्रति द्वेष का पाप नहीं देखते, तथापि हे जनार्दन! हम लोग, जो कुल नाश करने के अपराध को भली-भाँति समझते हैं, इस पाप से बचने के बारे में क्यों ना सोचे?

क्या लोभ हमारे विवेक को नष्ट कर देता है? अर्जुन का गीता में गंभीर प्रश्न

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 38 39 Meaning in hindi

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् : धन, भूमि, मकान, सम्मान, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि के प्रति बढ़ती प्रवृत्ति का नाम ‘लोभ’ है। इस लोभ के कारण दुर्योधन आदि की बुद्धि नष्ट हो रही है, इसलिए वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि, राज्य के लिए हम इतना बड़ा पाप करने को तैयार हो रहे हैं, अपने कुलों का नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य कितने दिन हमारे पास रहेगा और हम कितने दिन उसके पास रहेंगे? यदि हमारे जीवित रहते ही वह राज्य चला गया तो हमारा क्या होगा? और यदि हमारा शरीर चला जाए, यद्यपि राज्य बना रहे, तो हमारा क्या होगा? क्योंकि एक व्यक्ति को मिलन से जितनी अधिक खुशी मिलती है, उसके वियोग से उसे उतना ही अधिक दुख भी सहना पड़ता है। साथ रहने में उतनी खुशी नहीं है, जितनी अलग रहने में दर्द है। तात्पर्य यह है कि उनके हृदय में व्याप्त लोभ के कारण वे केवल राज्य और राज्य ही देख रहे हैं। वे यह नहीं देखते कि कुल का नाश करने से कितना भयानक पाप होगा।

जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, धन और शक्ति नष्ट हो जाती है। विभिन्न चिंताएँ और परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं। यहां तक कि दो मित्रों के बीच भी मनमुटाव हो सकता है, मन प्रदूषित हो सकता है, और कई प्रकार की असहमतियां उत्पन्न हो सकती हैं। असहमति से असंतोष पैदा होता है। जैसे द्रुपद और द्रोण बचपन के मित्र थे, लेकिन राज्य प्राप्त होने पर द्रुपद ने एक दिन द्रोण का अपमान कर उस मित्रता को नष्ट कर दिया, जिससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्य के बीच शत्रुता उत्पन्न हो गई। अपने अपमान का बदला लेने के लिए द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद को तलवार से पराजित कर दिया और उनका आधा राज्य छीन लिया। इसलिए द्रोणाचार्य को नष्ट करने के लिए द्रुपद ने यज्ञ किया, जिसके परिणाम स्वरूप धृष्टधुम्न और द्रौपदी दोनों का जन्म हुआ। वे यह नहीं देख रहे हैं कि, इस प्रकार मित्रों के प्रति शत्रुता रखने सेवकितना भयंकर पाप होगा।

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कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि भले ही दुर्योधन आदि को अपने कुल के नाश का दोष और मित्र से विश्वासघात का पाप नजर नहीं आता, लेकिन हमें कुल के नाश से होने वाली विपत्ति की विरासत तो देखनी ही चाहिए। [जिसका वर्णन अर्जुन श्लोक 40 से 44 तक आगे करेगे] क्योंकि कुल के नाश से होने वाले पापों से हम भली-भाँति परिचित हैं और मित्रों के साथ विश्वासघात (शत्रुता, घृणा) से होने वाले पापों से भी हम भली-भाँति परिचित हैं। यदि वे मित्र हमें पीड़ा पहुँचाते हैं, तो वह पीड़ा हमारे लिए हानिकारक नहीं है, क्योंकि पीड़ा केवल हमारे पिछले पापों को नष्ट करेगी, और हमें शुद्ध करेगी। लेकिन यदि हमारे मन में घृणा और शत्रुता की भावना है, तो वह मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहेगी और जन्म-जन्मांतर तक हमें पाप करने के लिए प्रेरित करती रहेगी, जिससे हम केवल पतन और पतन ही पाएंगे। हमें युद्ध के पाप से बचने के बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए, जो ऐसी विपत्तियों का कारण बनता है और मित्रों के बीच कलह उत्पन्न करता है? इसका मतलब यह है कि हमें इस पाप के बारे में सोचकर इससे बचना चाहिए।

कुल का नाश करने से होने वाले दोषों को हम जानते हैं! यह दोष क्या है?? इसका वर्णन अर्जुन अगले पांच श्लोक में करते हैं।

FAQs

‘लोभोपहतचेतस:’ का क्या अर्थ है?

इसका अर्थ है—’लोभ से ग्रसित बुद्धि’। जब व्यक्ति का विवेक लोभ के कारण नष्ट हो जाता है, तो वह सही-गलत नहीं समझ पाता।

कुल का नाश करने से क्या दोष होते हैं?

कुल के नाश से पारिवारिक परंपराएँ समाप्त होती हैं, सामाजिक असंतुलन आता है, और आने वाली पीढ़ियाँ नैतिक पतन का शिकार होती हैं।

मित्रों से द्रोह का क्या परिणाम होता है?

मित्रों से द्रोह करने से हृदय में द्वेष और घृणा उत्पन्न होती है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा को अशुद्ध करती है और बार-बार जन्म में पाप के बंधन में डालती है।

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