
Bhagavad gita Chapter 2 Verse 51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम् || 51 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, समता युक्त मनुष्य साधको कर्म जन्य फलों का त्याग करके जन्म रूपी बंधन से मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 51 Meaning in hindi
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण: [ क्या निष्काम कर्म भी सफल होता है? ]
जो समता से युक्त हैं, वे ही वास्तव में बुद्धिमान हैं। अठारहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति अकुशल कर्मों से घृणा नहीं करता तथा कुशल कर्मों से प्रेम नहीं करता, वही बुद्धिमान है।
कर्म सदैव फल के रूप में फलित होता है। कोई भी इसके फल का त्याग नहीं कर सकता। जैसे कोई व्यक्ति बिना किसी इच्छा के कृषि में बीज बो दे, तो क्या कृषि में अन्न नहीं उगेगा? यदि बोया गया है, तो अवश्य ही उत्पन्न होगा। इसी प्रकार कोई व्यक्ति बिना किसी इच्छा के कर्म करता है, तो उसे कर्म का फल अवश्य मिलेगा। अतः यहाँ कर्म के फल का त्याग करने का अर्थ है – कर्म के फल की इच्छा, वासना, आसक्ति तथा आसक्ति का त्याग करना। इसका त्याग करने में सभी समर्थ हैं।
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जन्मबन्धविनिर्मुक्ता [ क्या समता का अभ्यास हमें पुनर्जन्म से मुक्त कर सकता है? ]
समता से युक्त बुद्धिमान साधक जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि समता में स्थित होने के कारण उनमें राग, द्वेष, वासना, आसक्ति आदि किंचित मात्र भी दोष नहीं रहते, इसलिए उनका पुनर्जन्म का कोई कारण नहीं रहता। वे जन्म-मरण के बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
पदं गच्छन्त्यनामयम् [ क्या संतुलित जीवन से शांति मिल सकती है? ]
‘आमय’ का अर्थ है रोग। रोग एक विकार है। जिसमें किसी भी प्रकार का विकार नहीं होता, उसे ‘अनामय’ कहते हैं। जो लोग संतुलित होते हैं, वे ऐसी विकार-रहित अवस्था को प्राप्त करते हैं। इसी विकार-रहित अवस्था को पंद्रहवें अध्याय के पांचवें श्लोक में ‘अव्यय पद’ तथा अठारहवें अध्याय के छप्पनवें श्लोक में ‘शाश्वत अव्यय पद’ कहा गया है।
यद्यपि गीता में सतोगुण को भी अनामय कहा गया है, किन्तु वास्तव में अनामय (निर्विकार) तो अपना ही स्वरूप या परब्रह्म है, क्योंकि वह पारमार्थिक तत्त्व है, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् जन्म-मरण के चक्र में नहीं जाना पड़ता। क्योंकि उद्देश्य परब्रह्म को प्राप्त करना है, इसलिए भगवान ने सतोगुण को भी अमानय कहा है।
अनामय अवस्था की प्राप्ति क्या है? प्रकृति परिवर्तनशील है, इसलिए इसका कार्य, भौतिक जगत भी परिवर्तनशील है। यद्यपि वह स्वयं परिवर्तनहीन है, फिर भी जब वह इस परिवर्तनीय शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित करती है, तो वह स्वयं को परिवर्तनीय मानती है। लेकिन जब वह इस शरीर के साथ अपने कथित संबंध को त्याग देती है, तो उसे अपने स्वाभाविक निर्विकार स्वरूप का अनुभव होता है। इस स्वाभाविक निर्विकार के अनुभव को ही यहाँ अनामय अवस्था की प्राप्ति कहा गया है।
इस अनामय पद की प्राप्ति का क्रम क्या है? इसका उतर भगवान अगले 2 श्लोकों में कहते है।
FAQs
जन्म-मरण के बंधन से कैसे मुक्त हों?
गीता के अनुसार समता और कर्मफल की इच्छा का त्याग करने से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत अनामय पद को प्राप्त कर सकता है।
समता का क्या महत्व है जीवन में?
समता मन की स्थिरता है। राग-द्वेष और वासना से रहित समचित्त व्यक्ति ही वास्तव में बुद्धिमान होता है और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
क्या कर्म करना छोड़ देना चाहिए मुक्ति के लिए?
नहीं, गीता कहती है कि कर्म करना जरूरी है, लेकिन फल की इच्छा और आसक्ति का त्याग करना ही सच्चा त्याग है।
आज के समय में हम कर्मफल की इच्छा का त्याग कैसे करें?
अपने कर्तव्य को बिना किसी लालच या अपेक्षा के करें। अपने कार्य को सेवा मानकर समर्पण भाव से करना ही सबसे श्रेष्ठ तरीका है।