क्या सुख की तलाश आत्मज्ञान से दूर कर देती है?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 42 43

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित: |
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन: || 42 ||

कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति || 43 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, हे पृथानन्दन! जो कामनाओं में लिप्त हैं, स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानते हैं, वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में ही प्रीति रखते हैं, भोगों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, ऐसा कहने वाले मूर्ख लोग ऐसी पुष्पमयी (प्रकट एवं सुन्दर) वाणी बोलते हैं, जो जन्म रूपी कर्म का फल देने वाली है तथा भोगों एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अनेक कर्मों का वर्णन करती है।

क्या सुख की तलाश आत्मज्ञान से दूर कर देती है?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 42 43 Meaning in hindi

कामात्मान

वे इच्छाओं से इतने ग्रस्त हो जाते हैं कि वे स्वयं इच्छा का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे अपने और अपनी इच्छाओं के बीच कोई अंतर नहीं देखते। उनका यह भाव है कि व्यक्ति काम के बिना नहीं रह सकता, कामना के बिना कोई काम नहीं हो सकता, कामना के बिना व्यक्ति पत्थर की तरह कठोर हो जाता है, उसमें कोई चेतना नहीं रहती। ऐसे भाव वाले पुरुष ‘कामात्मानः’ हैं।

आत्मा तो वैसी ही रहती है, कभी बदलती नहीं, परन्तु इच्छाएं आती-जाती रहती हैं, बढ़ती-घटती रहती हैं। वह स्वयं ईश्वर का अंश है और कामना संसार का विषय है। यह सांसारिक पहलू के कारण है। इसलिए, आत्मा और इच्छा दो अलग-अलग चीजें हैं। लेकिन जो लोग कामनाओं से ग्रस्त हैं, उन्हें अपने स्वरूप का पृथक् बोध नहीं होता।

स्वर्गपरा

सर्वोत्तम दिव्य सुख स्वर्ग में भोगा जाता है, अतः स्वर्ग ही उनके लिए सर्वोत्तम लक्ष्य है, और वे उसे प्राप्त करने में दिन-रात लगे रहते हैं।

यहाँ ‘स्वर्गपरः’ शब्द का तात्पर्य उन लोगों से है जो वेदों और शास्त्रों में वर्णित स्वर्ग और अन्य प्राणियों में विश्वास करते हैं।

वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:

वे वेदों में वर्णित सकाम कर्मों में प्रिय हैं, अर्थात् वे वेदों का उद्देश्य केवल भोग और स्वर्ग प्राप्ति में ही मानते हैं, इसी कारण वे “वेदवादरता:” हैं। उनकी मान्यता में यहाँ और स्वर्ग में भोगों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, अर्थात् भोगों के अतिरिक्त उनकी दृष्टि में परमात्मा, दार्शनिक ज्ञान, मोक्ष, ईश्वरप्रेम आदि कुछ भी नहीं है। इसलिए वे दुःखों में ही लीन रहते हैं। उनका मुख्य लक्ष्य सुखों का आनंद लेना ही रहता है।

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यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:

जो मूर्ख लोग सत्य और असत्य, नित्य और अनित्य, अविनाशी और नाशवान का भेद नहीं समझते, वे वेद की भाषा को, जो संसार और उसके सुखों का वर्णन करती है, सुन्दर और पुष्पित भाषा कहते हैं।

यहाँ ‘पुष्पितां’ कहने का तात्पर्य यह है कि सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति का वर्णन करने वाली वाणी केवल फूल की पंखुड़ी है, फल नहीं। संतुष्टि फल से आती है, पंखुड़ियों की सुंदरता से नहीं। वह भाषण स्थायी फल नहीं देता। उस वाणी के फल, स्वाद आदि केवल देखने में ही अच्छे लगते हैं, उनमें स्थायित्व नहीं है।

जन्मकर्मफलप्रदाम्

वह अलंकृत वाणी ही जन्म रूपी कर्म का फल देने वाली है, क्योंकि उसमें केवल सांसारिक सुखों को ही महत्व दिया जाता है। उन सुखों की इच्छा ही आगे जन्म का कारण है।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति

सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए जो सकाम अनुष्ठान बताए गए हैं, वे अलंकृत वाणी बहुत से कर्मों से युक्त हैं, अर्थात् उन अनुष्ठानों में अनेक प्रकार के अनुष्ठान होते हैं, अनेक प्रकार के कर्म करने पड़ते हैं, अनेक प्रकार की वस्तुओं की आवश्यकता होती है तथा शरीर पर परिश्रम आदि भी बढ़ जाता है।

FAQs

क्या सुख की तलाश आत्मज्ञान से दूर कर देती है?

हां, जब हम सिर्फ इच्छाओं की पूर्ति पर ध्यान देते हैं, तो हम आत्मा की स्थायी पहचान को भूल जाते हैं, जिससे आत्मज्ञान से दूरी बढ़ती है।

क्या भोग और ऐश्वर्य का लालच हमें असली सुख से वंचित कर देता है?

हां, भोग और ऐश्वर्य की तलाश स्थायी सुख नहीं देती, बल्कि यह बार-बार इच्छाओं को जन्म देती है, जिससे मन और आत्मा में शांति नहीं रहती।

आज के जीवन में आत्मज्ञान को कैसे महत्व दें?

हमें भौतिक सुखों से ऊपर उठकर आत्मा की सच्ची प्रकृति को समझने की कोशिश करनी चाहिए। ध्यान, योग और संतुलित जीवनशैली से हम आत्मज्ञान के करीब आ सकते हैं।

क्या वेदों की भाषा का सही अर्थ समझना जरूरी है?

बिल्कुल! वेदों में वर्णित कर्मकांड और भोग की भाषा को समझना और उससे आगे बढ़कर परम सत्य को खोजना ही आत्मज्ञान की कुंजी है।

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