क्या हमारे फोकस की कमी है बहुशाखा बुद्धि का परिणाम?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || 41 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, हे कुरुनंदन यह सम बुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यावसायित्मिका बुद्धि एक ही होती हैं और अव्यावसायि मनुष्य की बुद्धि अनंत और बहु शाखाओ वाली ही होती है।

क्या हमारे फोकस की कमी है बहुशाखा बुद्धि का परिणाम?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 41 Meaning in hindi

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन

कर्मयोगी साधक का लक्ष्य समता प्राप्त करना है, जो कि परम सत्ता का स्वरूप है। हृदय की समता ही परब्रह्मस्वरूप में समता प्राप्त करने का साधन है, किन्तु संसार की आसक्ति हृदय की समता में बाधक है। उस राग को दूर करने अथवा परमात्म तत्त्व को प्राप्त करने के संकल्प को – व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों है? क्योंकि इसमें सांसारिक वस्तुओं, पदार्थों आदि की इच्छाओं का त्याग कर दिया जाता है। यह त्याग एक ही है, चाहे आप धन की इच्छा का त्याग करें या यश और कीर्ति की इच्छा का। लेकिन विचार करने के लिए कई बातें हैं, क्योंकि हर वस्तु अनेक प्रकार की होती है, जैसे एक ही मिठाई के कई प्रकार होते हैं। इसलिए उन चीज़ों की इच्छाएँ भी अनेक और अंतहीन हैं।

गीता में कर्मयोग (प्रस्तुत श्लोक) और भक्तियोग के विषय में व्यवसाय की बौद्धिक क्षमता का वर्णन किया गया है। लेकिन ज्ञान योग विषय व्यवसाय के बौद्धिक पहलू का वर्णन नहीं करता है। इसका कारण यह है कि ज्ञान योग में पहले रूप का ज्ञान होता है, फिर फलस्वरूप बुद्धि स्वतः ही निश्चय के साथ एक हो जाती है, और कर्म योग तथा भक्ति योग में पहले बुद्धि निश्चय के साथ एक हो जाती है, फिर रूप का ज्ञान होता है। इसलिए ज्ञान योग में ज्ञान ही मुख्य चीज है, और कर्म योग तथा भक्ति योग में संकल्प ही मुख्य चीज है।

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बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम

अव्यवसायि वे लोग हैं जिनके भीतर उपलब्धि की भावना होती है और जो भोग तथा संचय में आसक्त होते हैं। कामना के कारण ऐसे लोगों की बुद्धि अनंत होती है और उन बुद्धि की शाखाएं भी अनंत होती हैं, अर्थात प्रत्येक बुद्धि की भी अनंत शाखाएं होती हैं। उदाहरण के लिए पुत्र प्राप्ति की इच्छा – यह एक बुद्धि हुई और पुत्र प्राप्ति के लिए व्यक्ति औषधि खाता है, मंत्र जपता है, अनुष्ठान करता है, संत से आशीर्वाद लेता है आदि, ये बुद्धि की अनंत शाखाएं हो गईं। इसी प्रकार धन प्राप्ति की इच्छा एक बुद्धि बन जाती है और धन प्राप्ति के लिए ही मनुष्य व्यापार, नौकरी, चोरी, डकैती, विश्वासघात, ठगी आदि करता है, ये बुद्धि की अनंत शाखाएं हो जाती हैं। ऐसे लोगों के मन में परमात्मा को पाने का दृढ़ संकल्प नहीं होता।

अव्यावसायिक मनुष्य की बुद्धि अनंत क्यों होती हैं? इसका कारण अगले तीन श्लोक में भगवान कृष्ण बताते हैं।

FAQs

व्यवसायात्मिका बुद्धि का क्या अर्थ है?

व्यवसायात्मिका बुद्धि का मतलब है परमात्मा को पाने का एकमात्र संकल्प और समता का साधन। इसमें भोग और वस्तुओं की इच्छाओं का त्याग करके, सिर्फ आत्मा के कल्याण पर ध्यान दिया जाता है।

अव्यवसायिक बुद्धि क्या होती है?

अव्यवसायिक बुद्धि उन लोगों की होती है जो भोग, संग्रह और भटकती इच्छाओं में उलझे रहते हैं। उनकी बुद्धि की शाखाएं अनंत होती हैं, जिससे वे स्थिर और एकाग्र नहीं हो पाते।

गीता में इसका महत्व क्यों बताया गया है?

गीता बताती है कि कर्मयोग और भक्तियोग के मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए एकाग्र और दृढ़ संकल्प वाली बुद्धि जरूरी है। यह जीवन के हर क्षेत्र में सफलता का मूल है।

गीता का कौन-सा श्लोक हमें एकाग्रता सिखाता है?

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 41) हमें बताता है कि एकाग्रता से ही जीवन में सफलता और शांति मिलती है।

भगवद गीता से हमें क्या सीख मिलती है?

गीता सिखाती है कि हमें कर्तव्यनिष्ठ होकर बिना फल की चिंता किए कर्म करना चाहिए। इससे हमारा मन शांत रहता है और जीवन में सही दिशा मिलती है।

क्या गीता का ज्ञान आज के युवा के लिए भी उपयोगी है?

बिल्कुल! गीता का ज्ञान युवाओं को लक्ष्य निर्धारण, तनाव प्रबंधन और सही फैसले लेने में मदद करता है, जो आज की व्यस्त जिंदगी में बेहद जरूरी है।

क्या हमारे फोकस की कमी है बहुशाखा बुद्धि का परिणाम?

जब हमारे मन में अनेक इच्छाएँ और लक्ष्य होते हैं, तब हमारी बुद्धि की अनंत शाखाएं बन जाती हैं। इससे मन भटकता रहता है और फोकस नहीं बनता। भगवद गीता में भी कहा गया है कि अव्यवसायिक बुद्धि वालों का मन अनेक दिशाओं में भागता रहता है। इसलिए एकाग्रता के लिए हमें अपनी इच्छाओं को सीमित और अपने लक्ष्य को स्पष्ट रखना चाहिए।

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