Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 25 26
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि || 25 ||
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि || 26 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, यह देही प्रत्येक नहीं दिखता, यह चिंतन का विषय नहीं, और इसमें कोई विकार नहीं, इसीलिए यह देही को ऐसा जानकर शौक नहीं करना चाहिए। हे महाबाहों! अगर तुम इस देही को नित्य उत्पन्न होने वाला और नित्य मरने वाला भी मानो तो भी यह शोक का विषय नहीं।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 25 26 Meaning in hindi
अव्यक्तोऽयम
अर्थात जिस तरह शरीर संसार स्थूल रूप से दिखने में आता है, उस तरह यह शरीरी स्थूल रूप से दिखने में नहीं आता, क्योंकि यह स्थूल सृष्टि से रहित है।
अचिन्त्योऽयम
मन, बुद्धि, भी दिखने में आता नहीं, परंतु चिंतन में तो आता ही है। अर्थात यह सब चिंतन का विषय है, परंतु यह देही चिंतन का भी विषय नहीं, क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टि से रहित है।
अविकार्योऽयमुच्यते
इस देही को विकार रहित कहने में आया है, अर्थात उसमें कभी किंचित मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, सब का कारण प्रकृति है, यह कारण कारणभूत प्रकृति में भी विकृति होती हैं, परंतु इस देही में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं होती, क्योंकि यह कारण सृष्टि से रहित है।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि
इसीलिए इस देही को अच्छेद्य, अदाह्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, और अविकार्य विगेरे जान लेने में आता है, अर्थात ऐसा अनुभव कर लिया जाए तो फिर शौक हो ही नहीं सकता।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि
यहाँ भगवान ने पक्षांतर में ‘अथ‘ और ‘न्याय‘ शब्दों को संदर्भ में देकर कहा गया है कि यद्यपि सिद्धान्त और सत्य तो यही है कि शरीरी कभी भी जन्म और मृत्यु के अधीन नहीं है, (गीता अ. 2/20), तथापि यदि तुम सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत बात मानो कि शरीरी नित्य जन्म और नित्य मृत्यु के अधीन है, तो भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। क्योंकि जो जन्मा है उसे मरना अवश्य है, और जो मरता है उसे जन्म लेना अवश्य है – इस नियम से कोई बच नहीं सकता।
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क्या बीज की तरह हर पल बदलता है हमारा शरीर?
यदि एक बीज को धरती में बोया जाए तो वह अंकुरित होकर अंकुर उत्पन्न करता है और वह अंकुर धीरे-धीरे बढ़कर वृक्ष बन जाता है। इसमें, अगर हम सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो क्या वह बीज एक क्षण के लिए भी एकजुट रहा? धरती में सबसे पहले उसने अपना कठोर रूप त्यागा और कोमल हुआ, फिर उसने अपना कोमल रूप त्यागा और अंकुर बना, फिर उसने अपना अंकुर त्यागा और वृक्ष बना और अंततः अपने जीवन के अंत में वह मुरझा गया। इस प्रकार बीज एक क्षण के लिए भी एक जैसा नहीं रहा, इसके विपरीत, यह हर पल बदलता रहा। यदि बीज एक क्षण के लिए भी अक्षुण्ण रहता तो वृक्ष के सूखने की प्रक्रिया कैसे होती? उन्होंने पहला रूप त्याग दिया – वह उनकी मृत्यु थी, और दूसरा रूप ग्रहण किया – वह उनका जन्म था। इस प्रकार वह पलक झपकते ही जन्म लेता और मरता रहा। यह शरीर एक बीज की तरह है। शुक्राणु बहुत सूक्ष्म तरीके से राल के साथ मिल गये। वह बड़ा हुआ और बच्चा बन गया और फिर पैदा हुआ। जन्म के बाद यह बड़ा हुआ, फिर छोटा हुआ और अंततः मर गया। इस प्रकार शरीर एक क्षण के लिए भी एक जैसा नहीं रहता हे, बल्कि बदलता रहता है, अर्थात वह हर क्षण जन्मता और मरता रहता है।
भगवान कहते हैं कि यदि तुम शरीर को नित्य जन्म-मरण के अधीन भी मानते हो, तो भी यह शोक का विषय नहीं हो सकता।
FAQs
क्या आत्मा को जानने के बाद शोक नहीं करना चाहिए?
हाँ। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब आत्मा के शाश्वत, अजर-अमर और अविकार्य स्वरूप को जान लिया जाए, तो मृत्यु या परिवर्तन पर शोक करना व्यर्थ है। यह आत्मज्ञान शांति और समत्व की ओर ले जाता है।
आज के जीवन में गीता के इन श्लोकों की प्रासंगिकता क्या है?
आज की व्यस्त और तनावपूर्ण जिंदगी में जब हम मृत्यु, नुकसान या बदलाव से दुखी होते हैं, तब गीता सिखाती है कि आत्मा अमर है। यह समझ मानसिक शांति देती है और जीवन की चुनौतियों से उबरने में मदद करती है।
आत्मा के बदलते शरीर की तुलना बीज से कैसे की गई है?
जैसे बीज अंकुर बनता है, फिर वृक्ष बनकर अंततः मुरझा जाता है, वैसे ही आत्मा शरीर रूपी बीज में जन्म लेकर बार-बार परिवर्तन से गुजरती है। यह बदलाव जन्म और मृत्यु कहलाते हैं, लेकिन आत्मा स्वयं कभी नहीं बदलती।
गीता के अनुसार शोक क्यों मूर्खता है?
श्रीकृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति कभी न शरीर के परिवर्तन से शोक करता है, न मृत्यु से डरता है। शोक अज्ञानता का परिणाम है। आत्मा को जानने वाला हर स्थिति में समभाव रखता है।