
Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 13
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || 13 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, यज्ञ शेष योग का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सारे पापों से मुक्त हो जाते हैं परंतु जो केवल अपने लिए ही रसोइया करते है, अर्थात सारे कर्म करता है, वह पापी लोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 13 Meaning in hindi
क्या दूसरों की सेवा से ही असली योग की प्राप्ति होती है?
–यज्ञशिष्टाशिन: सन्त:
कर्मकाण्डपूर्वक निष्काम भाव से (यज्ञ के अवशेष रूप में) कर्तव्यकर्मों का अनुष्ठान करने से केवल योग या समता शेष रह जाती है। कर्मयोग में विशेष बात यह है कि संसार से प्राप्त पदार्थ के द्वारा ही कर्म किया जाता है। अतः संसार को सेवा में लगाने से ही वह कर्म सिद्ध होता है। यज्ञ के पूर्ण होने पर जो ‘योग’ स्वतः शेष रह जाता है, वह अपने लिए ही होता है।
क्या इच्छाओं का त्याग ही पाप और बंधनों से मुक्ति दिला सकता है?
–मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:
दूसरा शब्द ‘किल्बिष‘ बहुवचन है, जिसका अर्थ है समस्त पापों से अर्थात् बन्धन से। परन्तु भगवान ने यह शब्द ‘सर्व’ भी दिया है, जिसका विशेष अर्थ यह है कि यज्ञ के अवशेष को भोगने से मनुष्य में किसी प्रकार का बन्धन नहीं रह जाता। उसके समस्त (संचित, प्रारब्ध और किये हुए) कर्म नष्ट हो जाते हैं। समस्त कर्म नष्ट होकर वह सनातन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
अब सोचिए कि बंधन का वास्तविक कारण क्या है? ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए – यह कामना से होने वाला बंधन है। यह कामना ही सब पापों का मूल है। इसलिए कामना का त्याग करना बहुत जरूरी है।
वास्तव में कामना की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह इच्छा के अभाव से उत्पन्न होती है और ‘स्वयं’ (वास्तविकता का सार) में कोई कमी नहीं है और न हो सकती है। इसलिए ‘स्वयं’ में कोई इच्छा नहीं है। शरीर आदि असत् वस्तुओं के साथ एकता मानने की भूल से व्यक्ति असत् वस्तुओं के अभाव में अपनी कमी मानने लगता है और उस कमी की पूर्ति के लिए असत् वस्तुओं की इच्छा करने लगता है। साधक को यह ध्यान रखना चाहिए कि केवल आदि और अंत वाले कर्मों से उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुएं ही प्राप्त हो सकती हैं। ऐसी उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुएं कभी भी व्यक्ति का अभाव पूरा नहीं कर सकतीं। जब इन वस्तुओं से अभाव पूरा होने का प्रश्न ही नहीं उठता, तब इन वस्तुओं की इच्छा करना भी भूल है। इस प्रकार ठीक से विचार करने से इच्छा का निरोध सहज हो सकता है।
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क्या केवल अपने लिए कर्म करना पाप है? श्रीकृष्ण का गूढ़ उत्तर
–ये पचन्त्यात्मकारणात्
अपने लिए कुछ भी चाहने की भावना यानि स्वार्थ, वासना, ममता, आसक्ति और यहाँ तक कि थोड़ा सा भी आत्म-धर्माभिमान की भावना होना एक ऐसा भय है जो “आत्मकारणात्” की श्रेणी में आता है। जिस व्यक्ति में जितना अधिक स्वार्थ होता है, वह उतना ही अधिक पापी होता है।
मनुष्य को अपने कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है, परंतु उसके द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव समस्त जगत पर पड़ता है। ‘अपने लिए’ कर्म करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है और जैसे ही वह अपने कर्तव्य से विमुख होता है, राष्ट्र में अकाल मृत्यु, महामारी, मरण आदि महान कष्ट उत्पन्न होते हैं। इसलिए मनुष्य को उचित है कि वह अपने लिए कुछ न करे, किसी वस्तु को अपना न समझे और अपने लिए कुछ न चाहे।
अपने कर्मों के फलों (उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुओं) का आश्रय लेना ‘अपने लिए भोजन बनाना‘ की श्रेणी में आता है।
क्या खुद के लिए जीना ही सबसे बड़ा पाप है?
–भुञ्जते ते त्वघं पापा:
इन पदों में भगवान ने ‘अपने लिए‘ कर्म करने वालों की मृदु भाषा में निंदा की है। अपने लिए कर्म करते-करते वे इतना पाप संचित कर लेते हैं कि चौरासी लाख योनियों और नरकों का कष्ट भोगने पर भी वह समाप्त नहीं होता, बल्कि संचय बनकर रह जाता है। मनुष्य योनि एक ऐसी अद्भुत भूमि है, जिसमें पाप या पुण्य का जो भी बीज बोया जाता है, वह अनेक जन्मों तक फल देता है। अत: मनुष्य को तुरन्त यह निश्चय कर लेना चाहिए कि ‘मैं अब पाप (अपने लिए कर्म) नहीं करूँगा।’ इस निश्चय में बहुत शक्ति है। सच तो यह है कि परमात्म-मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय करने से पाप करना स्वतः ही बंद हो जाता है।
मुझे घोर कर्म में किस लिए लगते हो? अर्जुन के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने अनेक कारण देते हुए अगले दो श्लोक में सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए भी यज्ञ (कर्तव्य कर्म) करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है।